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ससंकिर ( श्वशङ्कनशीलः ) = कुत्तों से शंका करने वाला ( प्रणय - पक्ष ) | संकिर ( स्वशङ्कनशीलः ) = कुटुम्बियों से शंका करने वाला
( स्व = अपने लोग, कुटुम्बी ) ।
दिन्न सयल पयमग्गो = १. जो मार्ग में सचल ( लड़खड़ाता ) पैर रखता है --दिन्नो सयलो सकंपो पयो चलणो जंमि सो दिन्नसयलपयो । दिन्नसलयपयोमग्गो जस्स सो दिन्नसयलपयो, मग्गेसु दिन्ना सयला पया जेण वा ( वृद्धता - पक्ष ) ।
२. सभी स्थानों पर मार्ग बनाने वाला या सजल स्थान पर भी मार्ग बनाने
वाला - दिन्नो ठवियो सअलेसु सव्वेसु पएसु ठाणेसु मग्गो पहो जेण । दिनो ofan सयले ससलिलेसु पएसु ठाणेसु मग्गो पहो जेण वा (प्रणय-पक्ष ) । गणेइ = अभ्यास करता है ।"
वज्जालग्ग
अइ (अपि) = अरी
तए (त्वया) तेरे द्वारा (छन्दोऽनुरोध से त का द्वित्व हो गया है) । वृद्धा नायिका की सहेली उससे कह रही है कि अरी, देख, तेरा पुराना प्रणयी तेरे दिये हुये गुणों का अब भी अभ्यास कर रहा है ।
गाथार्थ - ( यौवन में उत्कट प्रणयावेग से तेरे गृह में रमणार्थ आने पर ) जो सिकुड़ा - सिकुड़ा सा रहता था एवं जिसके अंग भी कठिन परिस्थितियों में) कांप उठते थे, जो कुत्तों से डरता रहता था ( कि कहीं भूकने न लगे ) तथा सभी (सुगम या दुर्गम) स्थानों पर मार्ग बनाया करता था ( क्योंकि प्रणयी दुर्गम स्थानों में भी राह ढूंढ लेता है) वही ( वृद्धावस्था में ) श्वेत बालों से लजाता हुआ, तेरे दिये हुये ( सिखाये हुये ) गुणों का अभ्यास कर रहा है, क्योंकि अब अंगों में झुर्रियाँ (संकोच ) पड़ गई हैं और वे काँपने लगे हैं, ( उसे ) अपने कुटुम्बियों से शंका होने लगी है तथा वह मार्ग में लड़खड़ाते हुए चरण रखता है ।
गाथा क्रमांक ६६३
वह भक्खण दिव्वोसहीइ अंगं च कुणइ जरराओ । पेच्छह निठुरहियओ एहि सेवेइ तं कामो ॥ ६६३ ॥
इसकी संस्कृत छाया इस प्रकार दी गई है
१. पाइयसद्दमहण्णव |
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