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वज्जालग्ग
कथेवर्ज्जर- पज्जरोप्पाल पिसुण-संघ - बोल्ल - चव - जम्प - सीस- साहाः
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इस 'चव' से ल्युट् प्रत्ययान्त चवण शब्द बनने पर जब सीता शब्द के साथ उसका समास होगा, तब भाषा की प्रकृति अनुसार चकार लोप और य श्रुति होगी और सीयावयण (सीता का कथन ) शब्द सिद्ध होगा ।
खअ = १
--क्षय, विनाश
२- क्षत, भय और चोट या घाव
उपर्युक्त गाथा किसी धूर्त जार को उक्ति है । इसमें ग्राम्य जनों की निष्किञ्चनता का मार्मिक संकेत है । प्राचीन काल में गाँवों में इतनी दरिद्रता थी कि लोग हेमन्त और शिशिर में शीतनिवारणार्थ अपेक्षित ओढ़ने का जुगाड़ नहीं कर पाते थे । परिवार के कई-कई व्यक्ति एक हो ओढ़ने के नीचे पुआल में सिमिट कर हिमसिक्त रातों में आत्मरक्षा करते थे । गाथा में जिस निस्स्व एवं अधम ग्रामीण युवक का वर्णन है, वह अपनी अप्रिय पत्नी का सान्निध्य बिल्कुल नहीं चाहता था । परन्तु शिशिर की विवशता के कारण उसे उसी पत्नी के साथ एक ही शय्या पर सोना पड़ता था । यही नहीं, शीत के कारण एक अवाञ्छित महिला के उष्ण अंगों का निविड परिरम्भ भी करना पड़ता था । इस सारी विवशता का अपराधी आखिर शिशिर ही तो है । यदि निदाघ के दिन होते तो वह पत्नी का मुंह न देखता । अतः शिशिर काल का भस्म हो जाना ही अच्छा है । मूल प्राकृत की संस्कृत छाया निम्नलिखित होगी
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दह्यन्तां शिशिर दिवसा प्रियामप्रियां जनो वहति ।
दशवदनस्येव हृदये शीतातपनक्षयो ( सीतायवनक्षतं सीताकथनक्षतं वा ) जातः ( जातम् ) ॥
उपमेय - पक्ष में श्लेषानुरोध से क्षतं को पुलिंग रूप दे दिया गया है । लिंगविपर्यय की यह प्रवृत्ति वज्जालग्ग को श्लिष्ट और अश्लिष्ट, दोनों प्रकार की गाथाओं में दिखाई देती है ( देखिये, ११६, १३१, ६५७ )।
१. देखिये, आप्टे का संस्कृत कोश २. देखिये, गाथासप्तशती
- है० श०,
अर्थ -- शिशिर का समय भस्म हो जाय । ( क्योंकि ) लोग अवाञ्छित पत्नी को भी वहन कर हैं। जैसे रावण के हृदय में सीता के वियोग से भय उत्पन्न
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