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वज्जालग्ग
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हो गया था वैसे ही शीत से आतप (धूप या गर्मी ) का विनाश हो गया है ।
अथवा शिशिर-काल भस्म हो जाय । ( क्योंकि ) वाञ्छित और अवाञ्छित, दोनों प्रकार की महिलाओं को वहन करना पड़ता है। जैसे, सीता के कटुवचनों से रावण के हृदय में चोट लग गई थी वैसे ही शीत से आतप का नाश हो गया है।
गाथा क्रमांक ६५७ अवधूयअलक्खणधूसराउ दोसंति फरुसलुक्खाओ । उय सिसिरवायलइया अलक्खणा दीणपुरिस व्व ॥ ६५७ ।। अवधूतालक्षणधूसरा दृश्यन्ते फरसरुक्षाः पश्य शिशिरवातगृहीता अलक्षणा दोन पुरुषा इव
-श्री पटवर्धन-स्वीकृत संस्कृत छाया रत्नदेव के अनुसार 'अवध्य अलक्खणधूसराउ' को संस्कृत छाया 'अवधूतलक्षणधूसराः' है, जिसे उक्त पद का एकपक्षीय अर्थ कहा जा सकता है । टीका में इस गाथा की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है। दो एक शब्दों के अर्थ दे दिये गये हैं, जिनसे काठिन्य कम होना तो दूर रहा, और अधिक बढ़ गया है। श्री पटवर्धन ने भी इसे दुरूह कह कर छोड़ दिया है। उनके अनुसार "अवधूयअलक्खणधूसराउ' और 'फरुसलुक्खाओ' 'सिसिरवायलइया' के विशेषण हैं । 'अलक्खणा' 'दीणपुरिसा' का विशेषण है। साथ ही उन्होंने यह भी संकेत किया है कि 'अलक्खणा' शब्द श्लेष-द्वारा उपमान और उपमेय, दोनों से अन्वित है। रत्नदेव ने 'सिसिरवायलइया' का अर्थ 'शिशिरवातगृहोता' किया है परन्तु इस एक-पक्षीय अर्थ को स्वीकार कर लेने पर 'व' (इव) के माध्यम से उपमा का वर्णन करने वाली गाथा में कोई उपमेय हो नहीं रह जाता है। श्री पटवर्धन के द्वारा सुझाया हुआ अर्थ 'शिशिरवातलतिका' प्रसंगानुकूल न होने से ठीक नहीं जंचता है। वस्तुतः उक्त पद विशेष्य ( उपमेय ) का वाचक है परन्तु प्रकारान्तर से उसका उपयोग विशेषण के रूप में भी होने के कारण पद्य में किंचित् कूटत्व आ गया है । रत्नदेव सूरि का ध्यान इस तथ्य की ओर नहीं गया, इसी से उनकी संस्कृत छाया अधूरी रह गई । उपमेय और उपमान-दोनों पक्षों में उक्त पद की संस्कृत छाया इस प्रकार होगी
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