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________________ वज्जालग ४३५ गाथा क्रमांक ६५६ डझंतु सिसिर दियहा पियमप्पियं जणो वहइ । दहवयणस्स व हियए सीयायवणक्खओ जाओ ।। ६५६ ॥ रत्नदेव ने इसकी व्याख्या नहीं की है। श्री पटवर्धन ने उत्तरार्ध का अर्थ न समझने के कारण उस अंश का अनुवाद नहीं किया है। पूर्वार्च का अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है __ “शिशिर के दिन भस्म हो जायें। लोग प्रिय और अप्रिय का अनुभव करते हैं।" यह अर्थ कुछ अटपटा सा लगता है। एक तो 'वहइ' का सीधा अर्थ 'ढोना' है, 'अनुभव करना नहीं; दूसरे शिशिर को अभिशाप देने का कारण भी इसमें स्पष्ट नहीं है। यदि प्रिय और अप्रिय की अनुभूति को उसका कारण माने तो तुरन्त यह प्रश्न उठता है कि क्या अन्य ऋतुओं में प्रिय को ही अनूभूति होती है, अप्रिय को अनूभति कभी होतो ही नहीं है ? इस द्वन्द्वात्मक जगत् में अभिशाप देने का अवसर तब आता है जब प्रिय से नितान्त वंचित मनुष्य अप्रिय का दुर्वह भार ढोते-ढोते थक कर बैठ जाता है ।। मैं इस गाथा की व्याख्या के पूर्व कतिपय शब्दों के अर्थ दे देना आवश्यक समझता हूँ पियं = प्रियाम्, पत्नी को अप्पियं - अप्रियाम्, अनिष्ट, अवांच्छित, जो प्रिय नहीं है उसको । वहइ = वहति, ढोता है। दियहा= समय, दिवस शब्द यहाँ कालवाची है । सोयायवणक्खय = शीतातपनक्षय, शौत से ताप ( आतपन ) या धूप का विनाश (शिशिर-पक्ष)। सीयायवणक्खय = सीतायवनक्षत अथवा सीताकथनक्षत, सीता के वियोग का भय या सीता के वचनों को चोट (दशवदन-पक्ष) संस्कृत में यु धातु का अर्थ संयोग और वियोग, दोनों होता हैयु मिश्रणेऽमिश्रणे च ।। -सिद्धान्तकौमुदी, अदादि-प्रकरण इस धातु में ल्युट प्रत्यय जोड़ने पर वियोगार्थक यवन शब्द निष्पन्न होता है । प्राकृत में कथ् धातु को 'चव' आदेश हो जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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