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वज्जालग्ग
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माब्दार्थ-अत्था ( अर्था.) = १-धन
२--अभिधेय, प्रतिपाद्य विषय सत्थावत्था ( शास्त्रावस्थाः ) = शास्त्रों में अवस्थित, यह पद अर्थ
___का विशेषण है। किविणत्था ( कृपणस्थाः ) = कृपण में स्थित ।
सुयंति ( श्रूयन्ते ) = सुने जाते हैं । भावार्थ-कृपण किसी को भी धन नहीं देते और अन्य देते हुये व्यक्ति को रोक देते हैं। क्या उनके धन ( कृपण में स्थित धन ) शास्त्र में अवस्थित ज्ञानतत्त्व ( अर्थ = अभिधेय, प्रतिपाद्यतत्त्व ) के समान सुने जाते हैं ?
आशय यह है कि शास्त्र में जिस ज्ञान तत्त्व का वर्णन होता है वह श्रुति का विषय है, चक्षु का नहीं। जैसे शास्त्र की दुरुह पदावली का अर्थ जब बताया जाता है तब सामान्य जन भी केवल सुनते हैं। उस परम तत्त्व का साक्षात् अनुभव करने की क्षमता सब में नहीं रहती है, उसी प्रकार दूसरों की चर्चा का विषय बनने के लिये ही कृपणों के पास धन रहता है। उपभोग न करने के कारण वह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता। उपर्युक्त अर्थ में 'व' को प्राकृतत्वात् 'सत्यावत्था' से अन्वित किया गया है। यदि किं किविणत्था । (किं कृपणस्थाः
= कुत्सिते कृपणे स्थिताः ) को एक पद मान लें तो अर्थ का स्वरूप यह हो जायगा
मानों कुत्सित कृपण में अवस्थित अर्थ (घन और अभिधेय या तत्त्व ) शास्त्र में स्थित रहकर सुने जाते हैं ।
उत्तरार्ध के इस अर्थ में 'व्व' से उत्प्रेक्षा प्रकट होती है। यदि हम 'व्व' को अवधारण' के अर्थ में ग्रहण करें तो पूर्वोक्त रत्नदेवकृत संस्कृत छाया के चतुर्थ चरण का किंचित् परिवर्तित स्वरूप यह हो जायगा
शास्त्रावस्थाः श्रूयन्त एव । तब उत्तरार्ध का यह अर्थ होगा
पाइयसहमहण्णव में प्राकृत सर्वस्व के आधार पर 'व्व' को वा का रूप माना गया है। वा के अनेक अर्थों में अवधारण भी एक है। मेदिनी कोश में वा को उपमा वाचक माना गया है और यह भी बताया गया है कि यह शब्द के वल पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त होता है।
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