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________________ ४१६ वज्जालग्ग उत् उपसर्ग युक्त 'लाव' (लू + कर्तरि घञ्) का अर्थ है-उखाड़ने या काटने वाला। स्व शब्द आत्मीय वाचक है। 'स्वमदनोल्लावं' की व्याख्या यह हैस्वस्य स्वानुरक्तस्य जनस्य मदनोल्लावं काम-विकाराच्छेदकम् । प्रस्तुत गाथा में वेश्या के आलिंगन को ही जीवन का चरम-सौख्य समझने वाले किसी विलासलोलुप तरुण को सचेत किया गया है । गाथार्थ-स्वजनों (प्रेमियों) की काम-वासना का उच्छेद (उपशमन) करने वाली, वेश्या को छाती मुझे सुखद होगी-यह मत समझो। तुम अपने पतन से जानोगे कि वह शवाल-लिप्त प्रस्तर के समान है। ___ गाथा क्रमांक ५७९ न ह कस्स वि देंति धणं अन्नं देंतं पि तह निवारंति । अत्था कि किविणत्था सत्थावत्था सुयंति व्व ॥ ५७९ ॥ न खलु कस्यापि ददति धनमन्यं ददतमपि तथा निवारयन्ति अर्थाः किं कृपणस्थाः शास्त्रावस्थाः श्रुयन्त इव -रत्नदेवकृत संस्कृत छाया श्री पटवर्धन ने उपयुक्त छाया को गोरखधंधा बताकर चतुर्थ चरण में यह परिवर्तन किया है स्वस्थावस्थाः स्वपन्तीव-और पूरी गाथा का अनुवाद यों किया है "वे स्वयं किसी को धन नहीं देते, देते हुये अन्य व्यक्ति को भी रोक देते हैं, तब क्या हम यह कह सकते हैं कि कृपणों के धन निश्चिन्त ( अपने में स्थित ) होकर सोते हैं ।" विभिन्न दृष्टियों से विचार करने पर यह अनुवाद उचित नहीं प्रतीत होता। गाथा में 'व्व' ( इव ) या तो उपमा द्योतक हो सकता है या उत्प्रेक्षा द्योतक । प्रश्नवाचक किम् शब्द की उपस्थिति के कारण उसे उत्प्रेक्षा द्योतक मानना संभव नहीं है क्योंकि संभावना स्वरूपतः प्रश्नशून्य होती है। प्रश्न के आविर्भाव के साथ ही उत्कटैककोटिक सन्देहात्मक संभावन व्यापार ( उत्प्रेक्षा का हेतु ) निरस्त हो जाता है। 'किम्' को वितर्क-द्योतक मानने पर भी अर्थतः संशय की ही उपलब्धि होती है। इस प्रकार सभावना स्वयं संशय का विषय बन जाती है। अतः 'व्व' ( इव ) को उपमा-द्योतक मानना ही उचित है। मैं रत्नदेवकृत संस्कृत छाया को ही उपयुक्त एवं अर्थपूर्ण समझता हूँ। श्री पटवर्धन उस अव्याख्यात छाया का अर्थ नहीं समझ सके । फलतः उन्हें दूसरी छाया गढ़नी पड़ी। रत्नदेवकृत संस्कृत छाया की व्याख्या इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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