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वज्जालग्ग
क्या कृपण में अवस्थित अर्थ (धन और अभिधेय या तत्त्व ) शास्त्र में स्थित होकर केवल सुने जाते हैं।
इस अर्थ में न उपमा है और न उत्प्रेक्षा ।
गाथा क्रमांक ५८५ देमि न कस्स वि जंपइ उद्दारजणस्स विविहरयणाई। चाएण विणा वि नरो पुणो वि लच्छीइ पम्मुक्को ॥ ५८५ ॥ ददामि न कस्यापि वदति उदारजनस्य विविधरत्नानि त्यागेन विनापि नरः पुनरपि लक्ष्म्या प्रमुक्तः
-रत्नदेवकृत संस्कृत छाया रत्नदेव ने 'उद्दार' का अर्थ उदार लिखा है। श्री पटवर्धन ने उत् + द्वार = उद्वार = अद्दार अर्थात् द्वारहीन या दरिद्र-यह अर्थ किया है । अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है-“कृपण, 'गृहहीनों को विविध रत्ल देता हूँ'-यह नहीं कहता है । परन्तु फिर भी बिना दिये मनुष्य धन द्वारा त्याग दिया जाता है।" ___ उपर्युक्त अनुवाद से कृपणता के अभिप्रेत चरमोत्कर्ष की अविकल अवगति नहीं होती है क्योंकि कार्पण्य का व्यंजक दानाभाव है, जल्पनाभाव नहीं । अर्थ-प्रोक्त जल्पन प्रतिषेध मौनदातृत्व का भी साधक हो सकता है, क्योंकि उच्चाशय दाता सत्पात्रों को प्राज्य-द्रव्य देकर भी मौन रहते हैं, ढिंढोरा नहीं पीटते हैं। यदि पूर्वार्ध-प्रक्रान्त जल्पन-प्रतिषेध में विधेयत्व अभीष्ट होता तो उत्तरार्ध में 'जल्पनेन विनापि' इत्यादि कहकर उसका अनुवाद किया जाता । 'त्यागेन विनापि'-इस विरोध की परिपूर्णता के लिये पूर्वार्ध में त्यागाभाव का प्रमुखतया प्रतिपादन उचित है । अन्यथा दोनों गाथाओं में कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा। गाथा का अर्थ यह है-कृपण कहता है--मैं किसी भी उदार ( श्रेष्ठ = सत्पात्र ) व्यक्ति को विविध रत्न नहीं देता हूँ। ( परन्तु ) दान के बिना भी मनुष्य को लक्ष्मी छोड़ देती है।
गाथा क्रमांक ५८७ सिरजाणुए निउत्तो उड्डो हत्थेण खणणकुसलेण । कुद्दालेण य रहियं कह उड्डो आणए उययं ॥ ५८७ ।।
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