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________________ ४०६ वज्जालस्ग ऊर्ध्वाक्षि वेदनया अपि नमन्ति चर्याया अपि गुणः । शब्दार्थ-वेदना = ज्ञान ( वेदना ज्ञानदुःखयोः-मेदिनी) चर्या = चरित्र पूर्ववर्ती टीकाकारों ने वेदना का अर्थ दुःख किया है। अर्थ-विशाल लोचने ! अन्य रमणी में आसक्त होने पर भी प्रिय का अधिकतर आदर करना, क्योंकि लोग ज्ञान से भी झुक जाते हैं ( विनम्र हो जाते हैं ) और चरित्र के गुणों से भी। गाथा में किसी को विनम्र बनाने के दो हेतु बताये गये हैं-ज्ञान और चरित्र । नायिका को चरित्र-गुण ( आदर ) युक्त होने का सुझाव दिया गया है । गाथा क्रमांक ५६१ वण्णड्ढा मुहरसिया नेहविहूणा वि लग्गए कंठं । पच्छा करइ वियारं वलहट्टयसारिसा वेसा ॥ ५६१ ।। रत्नदेव ने द्वितीय चरण की छाया यों की है स्नेह विहीनापि लगति कण्ठम् । इसकी संस्कृत टीका यह है = "स्नेह विहीनापि तैलादिरहिता कण्ठे तालुनि लगति, अतिरुक्षत्वात्तस्याः ।" गाथा में वेश्या की तुलना चने की रोटी से की गई है । टीकाकार ने अर्थ तो लगभग ठीक ही दिया है परन्तु संस्कृत छाया दोष-पूर्ण है । 'नेह विहूणा विलग्गए कंठं' में 'वि' विरोध सूचक अव्यय है जो वेश्या पक्ष में सार्थक है, क्योंकि वह प्रेमरहित होने पर भी गले से लिपट जाती है। चने की रोटी की स्थिति भिन्न है। 'स्नेह विहीन ! तैलादिरहित ) होने पर भी कंठ में लग जाती है'-इस वाक्य में 'भी' के द्वारा विहीन स्नेह-हीनता और कण्ठलग्नता का विरोध सूचित हो रहा है। उससे यह अर्थ निकलता है कि यद्यपि स्नेहहीन होने पर चने की रोटी को गले में नहीं लगना चाहिये ( या अटकना चाहिये ), फिर भी वह लगती है । यह वर्णन अनुभव विरुद्ध है । तथ्य यह है कि घी या तेल लगा देने पर चने की रोटी सरलता से गले के नीचे उतर जाती है, अटकती नहीं है । ऊपर उद्धृत टीका-वाक्य से स्पष्ट प्रकट होता है कि उसमें चने की रोटी के अर्थ करते समय 'वि' को बिल्कुल छोड़ ही दिया गया है। चने की रोटी के पक्ष में अर्थ करते समय 'वि लग्गए' को 'विलग्गए' पढ़ना होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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