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________________ वज्जालग्ग गाथा क्रमांक ५५० रजावंति न रजहिं देंति असोक्खं न दुक्खिया होति । असुयविणय त्ति एण्हि दुक्खाराहा जए छेया ।। ५५० ॥ श्री पटवर्धन ने 'अस्यविणय' का ठीक अर्थ देकर भी उस पर अविश्वास प्रकट किया है । उनके अर्थ का समर्थन मेदिनी कोश का यह वाक्य करता है विनया तु बलायां स्त्री शिक्षायां प्रणतो पुमान् । संस्कृतटीका में तृतीय चरण का 'अमुणेमि जाण इण्हि' यह पाठ उद्धृत है । अंग्रेजी टिप्पणी में इस पाठ का अर्थ अस्पष्ट बताया गया है। यदि निम्नलिखित ढंग से सोचें तो इसका कुछ अर्थ निकल सकता है __ 'अमुणेमि' को 'अमुणे मि' पढ़िये । 'अमुणे' का अर्थ है-हे मर्खेः । 'मि' अवि या वि (संस्कृत अपि) का अपभ्रंश रूप है (देखिये पाइयसद्दमहण्णव)। अवि या वि का प्रयोग पादपूर्ति के लिये होता है। पउमचरिय के निम्नलिखित पद्य में 'वि' का कोई अर्थ नहीं है, वह केवल पादपूर्ति के लिये ही आया है जइ पढम जिणरहो वि हु, भमिहि नयरे सुसंघपरिकिण्णो। ता होही आहारो नियमा पुण अणसणं मज्झ ॥-८१४९ अब उत्तरार्ध का यह अर्थ कर सकते हैं'भरी मूर्खे ! इस समय जगत् में छेकजन दुराराध्य हैं'-(यह) जान लो । गाथा क्रमांक ५५५ अन्नासत्ते वि पिए अहिययरं आयरं कुणिज्जासु । उद्धच्छि वेयणाइ वि नमंति चरियाइ वि गुणेहिं ।। ५५५ ।। इसकी संस्कृत छाया यह दी गई है अन्यासक्तेऽपि प्रियेऽधिकतरमादरं कुर्वीथाः । ऊर्ध्वाक्षि वेदना अपि नमन्ति चरिता अपि गुणैः ॥ परन्तु तृतीयान्त 'वेयणाइ' को वेदना और 'चरियाइ' को चरिता कैसे समझ लिया गया ? श्रीपटवर्धन के अनुसार यहाँ लिंग व्यत्यय है और उत्तरार्ध का भाव बिल्कुल स्पष्ट नहीं है ( पृ० ५३४ ) । संस्कृत टीका में उक्त शब्दों पर विशेष प्रकाश नहीं डाला गया है। 'चरियाइ वि गुणेहि' का पिण्डितार्थ 'चरित्रगुणः' अवश्य लिखा है । उपर्युक्त गाथा के द्वितीया की संस्कृत छाया यों होगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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