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वज्जालग्ग
करने लगते हैं । इसलिये वे उन सूर्य-किरणों के समान हैं जो रात को न देखकर लाल हो जाती हैं (सायं और प्रातः किरणें प्रायः लाल हो जाती हैं)" उपर्युक्त विशेषतायें चतुर नहीं बल्कि भोले एवं निष्कपट मनुष्य में पाई जाती हैं। यह अर्थ 'बालासंवरणवज्जा' में संकलित अन्य गाथाओं में वर्णित छेकों के कुटिल स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल है। प्रस्तुत गाथा के पूर्व और समनन्तर संगृहीत पद्यों में छेकों को 'दुराराहा' (दुराराध्य), दुक्खाराहा (दुःखाराध्य) कह कर उनकी कुटिलता का इन शब्दों में वर्णन है
रज्जावंति न रज्जहिं हरंति हिययं न देंति नियहिययं । __ छेया भुयंगसरिसा उसिऊण परंमुहा होति ।। अर्थात् छेक प्रेम कराते हैं, करते नहीं; हृदय हरते हैं, अपना हृदय देते नहीं। वे भुजंग के समान डंस कर पराङ्मुख हो जाते हैं। अतः उक्त अंग्रेजी अनुवाद असंगत है। छेक प्रकृति एवं प्रकरण के अनुकूल अर्थ के निमित्त कतिपय श्लिष्ट पदों की व्याख्या में किचित् परिवर्तन करना पड़ेगा-विरज्जति (वि + रज्जंति = - वि + रज्यन्ते) = विशेष अनुरक्त होते हैं । अदिट्टदोसा (अदृष्टदोषाः) = न दृष्टा नावलोकिता दोषा रात्रिथैः अर्थात्
जिन्होंने रात्रि को नहीं देखा है। अन्यपक्ष में इस शब्द की व्याख्या यों हो जायगीन दृष्टाः दोषाः दुर्गुणाः यः अर्थात् जिन्होंने दुर्गुणों को
नहीं देखा है। विरज्जति = वि (अपि) = भी, रज्जति = अनुरक्त या लाल हो जाती हैं । यहाँ संस्कृत छाया में 'अपि रज्यन्ते' करना होगा। छेक-पक्ष में विरज्जति का अर्थ है-विरक्त हो जाते हैं । अतः अर्थ करते समय 'वि रज्जति' को विरज्जति पढ़ना होगा।
गाथार्थ-मृगलोचने ! छेकजन किसी पर अनुरक्त नहीं होते, अनुरक्त होने पर भी विशेष अनुरक्त नहीं होते। जैसे रात्रि को न देखने वाली भी रवि किरणें (रविकर पुलिंग) रक्त (वर्ण) हो जाती हैं, वैसे ही छेकजन कोई दोष देखे बिना विरक्त हो जाते हैं ।
___ 'अदिट्टदोसा विरज्जति' में रविकर और दोषा के लिंगों के आधार पर नायकनायिका व्यवहार समारोपात्मक समासोक्ति है । छेक-पक्ष में दोष दर्शनरूप कारणाभाव में भी विरक्ति-रूप-कार्योत्पत्ति के कारण विभावना है ।
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