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कहो वि गइंदु तुरंगम कासु वि । थोडउ कहो वि दिणार सहासु वि ॥ -- पउमचरिउ, जुज्झकंड, ६२०१४/६
वज्जालग्ग
पिय हउँ थक्की सयलु दिणु, तुहु विरहग्गि किलंत । थोडइ जल जिमि मच्छलिय, तल्लो विल्लि
करंति ॥
- कुमारपाल प्रतिबोध
विसुद्ध ।
दुछु ||
- सावयधम्म दोहा
माया मिल्लही थोडिय वि, दूसइ चरिउ कंजिय विदुई वि तुहइ, सुद्धु वि गुलियउ
मूर्धन्य वर्ण ड के स्थान पर उसके सजातीय र का हो जाना अस्वाभाविक नहीं है । 'थोर-गरुय' के उपर्युक्त दोनों अर्थों में प्रथम उस स्थिति में ग्राह्य है जब नायिका स्वस्थ एवं बलवती हो । द्वितीय अर्थ कृशकाय महिला के प्रसंग में स्वीकार्य होगा ।
गाथार्थ - धन्य महिलाओं के अपने घर में मोटे और लम्बे ( या थोड़े वजन वाले) सुन्दर लौह वलय (सेम) से युक्त और उदूखल (ओखली) के अनुरूप मुसल रहते हैं ।
शृङ्गारपक्ष - धन्यमहिलाओं के घर में मोटे और लम्बे ( या थोड़े लम्बे अर्थात् छोटे) सुन्दर वलयाकार अग्रभाग वाले और योनि के अनुरूप लिंग सुलभ रहते हैं ।
इस अर्थ में उदूखल और मुसल क्रमशः योनि और लिंग के प्रतीक हैं ।
गाथा क्रमांक ५४८
रज्जति ने कस्स वि रत्ता पसयच्छि न हु विरज्जति । दिणयरकर व्व छेया अदिट्ठदोसा वि रज्जति ॥ ५४८ ॥
रज्यन्ते नैव कस्मिन्नपि रक्ताः दिनकरकरा इव च्छेका
श्री पटवर्धन ने यह अर्थ लिखा है"चतुर मनुष्य किसी व्यक्ति से प्रेम कभी विरक्त नहीं होते हैं । मृगलोचने !
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प्रसृताक्षि न खलु विरज्यन्ते अदृष्टदोषा अपि
रज्यन्ते ।
- रत्नदेवसम्मत संस्कृत छाया
नहीं करते हैं । यदि वे प्रेम करते हैं तो वे बिना 'दूसरों' का दोष देखे ही प्रेम
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