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________________ ४०० वज्जालग्ग चाह ( आशा, तृष्णा ) से भरा है। प्रणय के प्रवेग से आर्द्र अंग ( योनि ) में तुम्हारा मैथुन रुचता है। गाथा क्रमांक ५२४ धुत्तीरयस्य कज्जे गहिराणि परोहडाइ वच्चंतो। धम्मिय सुरंगकाओ कुरयाण वि नवरि चुक्किहिसि ।। ५२४ ।। धत्तुरकस्य (धूर्तारतस्य ) कार्ये गभीरान् गृहपश्चाद्भागान् व्रजन् । धार्मिक सुरङ्गकात् कुरबकेभ्योऽपि ( कुरतेभ्योऽपि ) केवलं भ्रंशिष्यसि ।। श्रीपटवर्धन-स्वीकृत संस्कृत छाया रत्नदेव ने सुरङ्गा, कुरबक और धत्तूर-तीनों को पुष्पवाचक माना है और उत्तरार्ध की व्याख्या में लिखा है क-सुरङ्गाकार्ये कुरबकाण्यपि चुक्कि हिसि न प्राप्स्यसि । ख-सुरतकार्ये कुरतान्यपि न प्राप्स्यसि ( शृङ्गार-पक्ष )। टीका का आशय यह है अरे धार्मिक, धतूरे के लिये घर के पीछे के भागों में भटकते हुये तुम सुरंगा के लिये कुरबकों से भी वंचित रहोगे ( चूक जाओगे)। शृंगारपक्ष-धूर्ता-रत के लिये भटकते हुए तुम सुरत के लिये कुरतों से भी वंचित रहोगे ( सुरंग = सुरत )। अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार हैक-तुम सुरंगक और कुरबक से भी वंचित रहोगे। ख-तुम सुरंगक ( सुरत ) और कुरत से भी वंचित रहोगे । प्रथम व्याख्या में दोष यह है कि पूर्वार्ध में जब एक बार धार्मिक की व्रज्या ( भ्रमण ) का प्रयोजन 'धुत्तीरय' को बताया गया है तब उत्तरार्ध में पुन: सुरंगा ( जब कि मूल में सुरंगक शब्द है ) को प्रयोजन के रूप में उपन्यस्त कर, उसके लिए कुरबक से वचित रह जाने की चर्चा करना कोई अर्थ नहीं रखता है। साथ ही षष्ट्यन्त 'धुत्तीरय' से सप्तम्यन्त 'कज्जे' का अन्वय करना तो स्वाभाविक है परन्तु सुरंगकाओं से उसको सम्बद्ध करना व्याकरण की स्पष्ट अवहेलना है। द्वितीय व्याख्या में दोनों पदों की भिन्न विभक्तियां बाधक हैं। इसीलिए अंग्रेजी टिप्पणी में लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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