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________________ ३९४ वज्जालग्ग यह अर्थ 'वि अंग' को समास-रहित पद मानकर किया गया है। अथवा गाथा के उत्तरार्ध का यों अर्थ करें चिकित्सा पक्ष-यह अंग फिर भी बायभिडंगों से संतुष्ट हो गया है । प्रणय पक्ष-यह अंग फिर भी विट (प्रेमी) के अंगों से सन्तुष्ट हो गया है। अर्थात् इस समय तुम्हारे अंगों के स्पर्शमात्र से सन्तुष्ट हो गया है। इस अर्थ में 'एयं' (एतम् ) का अन्वय 'अंग' के साथ किया गया है, व्याधि के साथ नहीं। गाथा क्रमांक ५१६ गहवइसुएण भणियं अउव्वविज्जत्तणं हयासेणं । जेण पउंजइ पुक्कारयं पि पन्नत्तियाणं पि ।। ५१६॥ गृहपतिसुतेन भणितपूर्ववैद्य कं हताशेन । येन प्रयुङ क्ते पुक्कारयं (पूत्काररतम्) अपि प्रज्ञप्तिकानामपि ॥ - रत्नदेवकृत संस्कृत छाया इसमें किसी विलासी गृहपतिकुमार के विलक्षण वैद्यक-शास्त्रों की करामात का वर्णन है । पद्य के चतुर्थ चरण में प्रयुक्त 'पन्नत्तिया' शब्द की व्याख्या में लिखा The meaning of this word is obscure both in the case of the overt and the covert senses of the stanza. आशय यह है कि इस शब्द का न तो प्रकट अर्थ स्पष्ट है और न गुप्त । रत्नदेव मौन हैं । उन्होंने एक पक्ष में 'पन्नत्तियाणं' का अर्थ 'प्राप्तानाम्' दिया है। मेरे विचार से श्लिष्ट शब्दों के अर्थ निम्नलिखित हैं-- क-पन्नत्तिया (पण्णत्तिया) = पचास स्त्रियाँ, पण्ण = पचास या पाँच (प्रणय पक्ष) ति' शब्द का अर्थ पाइयसद्दमहण्णव के अनुसार स्त्री है। १. समासे वा (२।९७) इस हैमसूत्र की वृत्ति के अनुसार त का द्वित्व होने के अनन्तर स्वार्थिक क प्रत्यय जुड़ने पर पण्णत्तिया या पन्नत्तिया शब्द सिद्ध होगा। स्त्र्यर्थक ति शब्द प्राचीन हिन्दी साहित्य में तिय, तीय, तिया और ती के रूप में देखा जा सकता है सुर तिय नर तिय नाग तिय, अस चाहति सब कोय । गोद लिये हुलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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