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________________ वज्जालग्ग ३९५ ख-पन्नत्तियाणं (प्रज्ञप्तिदानं प्रज्ञप्तिज्ञानं वा) = प्रज्ञप्ति अर्थात् उपदेश का दान या प्रज्ञप्ति संज्ञक जैनशास्त्र का ज्ञान अथवा मृत्युदान (प्रज्ञप्ति = मृत्यु) ग-पणत्तियाणं (प्राज्ञप्तिकेभ्यः) = चतुर्थ्याः षष्ठी, ज्ञानिभ्यः अर्थात् ज्ञानियों के लिये या ज्ञान संपन्न श्रमणियों के लिये (प्राज्ञप्तिकाभ्यः) घ-पण्णत्तियाणं = पनातियों या प्रपौत्रों के लिये । पुक्कारयं (पुंस्कारकम्) = १. पुरुषेन्द्रिय या शिश्न (कारक = इन्द्रिय) २. औषध विशेष-टीका ३. (फूत्कार) फूंक (फूत्कार + क) यहाँ फूत्कार या फूंक का अभिप्राय जादू-टोने के निमित्त भभूत फूंकने से है। ४. पूत्काररत नामक रत-विशेष -संस्कृत टीका विज्जत्तणं = १. वैद्यक शास्त्र २. पाण्डित्य या विद्या गाथा में पि (अपि) शब्द दो बार आया है। यहाँ विभिन्न प्रसंगों के अनुसार उस के अर्थ निन्दा, विरोध और अवधारण' हैं गाथा का वैद्यक पक्षीय अर्थ-दुष्ट गृहपति कुमार ने अपूर्व वैद्यक शास्त्र बताया है जिससे (वह) झाड़-फूंक का भी प्रयोग करता है और उपदेश-दान का भी (अथवा मृत्युदान भी, मार भी डालता है)। उपदेश दान का तात्पर्य यह भी है कि कानों के समीप फूंक मारते समय संकेत स्थल की सूचना भी दे देता है। मृत्युदान से यह सूचित होता है कि प्रणयी वैद्य की एक-एक फूंक पर प्रेमिका के प्राण तड़पने लगते हैं। अथवा उत्तरार्ध के निम्नलिखित अर्थ करें१. पुक्कारय नामक औषध का प्रयोग भी करता है और प्रज्ञप्तिदान (उपदेशदान) १. पाइयसद्दमहण्णव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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