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________________ वज्जालरंग ३९३ अर्थात् मित् संज्ञक ज्ञप् धातु मारण, तोषण और निशामन (श्रवण ) में प्रयुक्त होता है। यज्ञीय प्रकरण में सर्वत्र ज्ञप् का मारण अर्थ प्रसिद्ध है। अतः प्रसंगानुसार प्रज्ञप्त ( पन्नत्त ) का उक्त अर्थों में से कोई भी अर्थ ले सकते हैं। श्लिष्ट पदार्थ-सरसुप्पन्न = ( स्वरसोत्पन्नम् ) १--स्वरसेन' स्वभावनोत्पन्नम् अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न ( व्याधिपक्ष ) २--स्वकीयेन रसेन रागेण प्रेम्णावोत्पन्नम् ___ अर्थात् अपने प्रेम से उत्पन्न । (प्रणयपक्ष) विअंग = व्यङ्गयम् १-(खण्डनीयम् ) खण्डन करने योग्य या नष्ट करने योग्य ( पाइयसहमहण्णव) विडंगं = १--विडंग अर्थात् बायभिडंग नामक औषध २-विटाङ्ग, जार ( विट) का अंग पन्नत्तं = प्रज्ञप्तम्, प्ररूपित, कथित या मारित, गाथा का चिकित्सा पक्ष में प्रकट अर्थ यह है वैद्य ! तुम ज्वर के निदान में सचमुच कुशल हो और स्वभावतः उत्पन्न हो जाने वाले रोग को देख रहे हो, क्योंकि इस ( रोग) को पुनः बायभिडंग से खण्डनीय ( नाश्य ) बताया है। प्रणयपक्षीय गुप्तार्थ-वैद्य ! तुम ज्वर के निदान में सचमुच कुशल हो और अपने प्रेम से उत्पन्न रोग को लक्षित कर रहे हो, क्योंकि इसको पुनः विट ( उपपति ) के अंग से खण्डनीय ( उपशाम्य ) बताया है। उपर्युक्त अर्थ 'विअंग' को एक पद मानकर किये गये हैं। यदि विडंग में श्लेष न माने तो अर्थ यह होगा ___ यद्यपि यह रोग स्वाभाविक है ( पक्षान्तर में—तुम्हारे प्रणय से उत्पन्न है ) फिर भी इस शरीर को विडंगों ( बायभिडंगों ) के द्वारा मार डाला गया है (प्रज्ञप्त = मारित ) । अर्थात् मैं व्यर्थ ही बायभिडंग खाते-खाते मरी जा रही हूँ। १. पाइयसद्दमहण्णव २. ......................."रसो गन्धरसे जले । शृङ्गारादौ विषे वीर्ये तिक्तादौ द्रवरागयोः ॥ --मेदिनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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