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________________ ३९२ वज्जालग्ग गाथा क्रमांक ५१२ सच्चं जरए कुसलो सरसुप्पन्नं य लक्खसे वाहि । एयं पुणो वि अंगं विज विडंगेहि पन्नत्तं ॥ ५१२ ।। सत्यं ज्वरे कुशलः स्वरसोत्पन्नं च लक्षसे व्याधिम् । इदं पुनरप्यङ्गं वैद्य विडङ्गः प्रज्ञप्तम् ॥ __ ---रत्नदेवसम्मत संस्कृत छाया प्रो० पटवर्धनकृत अनुवाद इस प्रकार है हे वैद्य ! तुम सचमुच ज्वर का निदान करने में कुशल हो। तुम देखते हो कि मेरा रोग प्रेम के कारण उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शरीर ( केवल ) विडंग ( वायभिडंग नामक दवा ) से स्वस्थ होगा ( अन्यार्थ-केवल जार के शरीर का संयोग होने से दूर होगा)। । उपर्युक्त अर्थ नितान्त अनौचित्यपूर्ण है, क्योंकि यह नायक वैद्य के चिकित्सार्थ उपस्थित होने पर रोग शय्या पर पड़ी व्याजरुग्णा परकीया नायिका की श्लेषगभित उक्ति है, और कोई विदग्ध तरुणी परिवार के समक्ष इतनी उन्मुक्त भाषा में अपने प्रच्छन्न प्रणय का उद्घाटन नहीं करती । पूर्वार्ध के ऋजुकथन में भोलापन भले ही हो, वह 'बाँकपन' नहीं है, जो किसी उत्कृष्ट काव्य का प्राण होता है। इस भोले अर्थ में नायिका की विदग्धता नहीं, निर्लज्जता का बीभत्स प्रदर्शन है। गाथा में निविष्ट 'पन्नत्तं' शब्द का जो अर्थ टीकाकारों ने दिया है, वह अनुमान पर अवलम्बित है। श्रीपटवर्धन ने 'पन्नत्त' का अर्थ स्वस्थ या उपचरित लिख कर पुनः उसे संस्कृत प्रणष्ट से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है, तो रत्नदेव ने उसका अर्थ 'पुनर्नूतनीसंजातम्' बताया है । वस्तुतः यह शब्द संज्ञानार्थक ज्ञप् से निष्पन्न है। सिद्धान्तकौमुदी की तत्त्वबोधिनी टीका में 'वा दान्तशान्तपूर्णदस्त स्पष्टच्छन्नज्ञप्ताः' -इस पाणिनीय सूत्र द्वारा निपातित ज्ञप्त शब्द के सन्दर्भ में निम्नलिखित उल्लेख हैज्ञपिमित्संज्ञाया मारणतोषणनिशामनेष्वित्युक्तः । -पूर्व कृदन्त प्रकरण १. अंग्रेजी टिप्पणी में इस गाथा के द्वितीया का भाव अस्पष्ट घोषित किया गया है । द्र० पृ० ५१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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