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वज्जालग
अभिप्राय नहीं है कि कौआ अमंगल की सूचना देता है-इसलिये स्त्रियाँ उसे देखते ही डंडा लेकर उड़ाने लगती हैं। जब कौआ गृह-शिखर पर बैठकर बोलने लगता है तब उसे बड़ा शकुन माना जाता है । परदेशी प्रिय के पथ पर प्रतिक्षण आँखें बिछाये बैठी व्यथातुर विरहिणो तो यही समझती है कि मेरा प्रवासी अब अवश्य घर आ जायगा । वह उसे सादर उड़ाकर प्रिय तक अपना सन्देश पहुँचातो है। प्राचीन काव्यों और लोक-गीतों में पदे-पदे वल्लभागमननिवेदक काक के वर्णन मिलते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के निम्नलिखित पद में कौए को देख कर माता कौशल्या के शकुन मनाने का वर्णन है
बैठी सगुन मनावति माता । कब ऐहैं मेरे बाल कुसल घर, कहहु काग फुरि बाता। दूध-भात को दोनी दैहौं, सोने चोंच महौं । जब सिय-सहित विलोकि नयन भरि, राम लषन उर लैहौं । अवधि समीप जानि जननी जिय, अति आतुर अकुलानी । गनक बोलाइ पायँ परि पूछति, प्रेम मगन मदु-वानी ॥ तेहि अवसर कोउ भरत निकट तैं, समाचार लै आयो । प्रभु आगमन सुनत तुलसी, मनो मोन मरत जल पायौ ।।
रतनसेन की विरहिणी नागमती ने उसे सन्देश-वाहक के रूप में देखा है
पिय सौं कहेहु संदेसहा, हे भौंरा हे काग । सापनि विरहै जारि मुई, तेहिक धुवाँ हम्ह लाग ॥ -पद्मावत
अपभ्रंश-कवि ने तो यहाँ तक लिखा है कि इधर वियोगिनी कौआ उड़ा ही रही थी कि उधर से उसका प्रेमी सहसा दिखाई पड़ गया । कौए का मांगलिकता का इतना जीवित प्रमाण और क्या हो सकता है
वायस उड्डावंतिए, पिय दिट्टो सहसत्ति । अद्धा वलया महिहिं गय, अद्धा फुट्टि तडत्ति ।।
-हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण
गाथा में अवस्थित 'अणुदियहं बद्धवेणोए' को आलोचना में श्रीपटवर्धन लिखते हैं-"यह वर्णन उस कथन के सर्वथा विपरीत है, जिसके अनुसार प्रोषित पतिकाओं को विरह की अवधि में अपना केश-संस्कार नहीं करना चाहिये
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