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वज्जालग्ग
क्रीडा शरीर संस्कारं समाजोत्सवदर्शनम् । हास्यं परगृहे यानं त्यजेत् प्रोषितभर्तृका ॥
यहाँ विद्वान् आलोचक ने लोकभाषा कवि के साथ समुचित न्याय नहीं किया है । उपर्युक्त श्लोक में एक पवित्र आदर्श का निरूपण है और बताया गया है कि प्रोषितपतिकाओं को उस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिये । उसमें यह कहाँ कहा गया है कि प्रोषितपतिकायें उक्त प्रकार जीवन-यापन करती थीं । गाहमत्तसइ, आर्यासप्तशती तथा वज्जालग्ग के बहुसंख्य पद्यों में परकीया के जिस उद्दाम प्रणय का उन्मुक्त और कहीं-कहीं बीभत्स चित्रण है, वह किस स्मृति से समर्थित है ? कवि लोकजीवन का यथार्थ द्रष्टा है । उसके चरण ठोस धरातल पर होते हैं । वह समाज को जैसा देखता - सुनता है, वैसा ही चित्रित करता है। लोकजीवन सर्वतोभावेन धर्म से अनुशासित नहीं होता है । अतः गाथा में अनौचित्य नहीं है । आज भी गांवों में प्रोषितपतिकायें लगभग सुहागिन स्त्रियों के समान वेशभूषा धारण करती हैं । शरीर-संस्कार या प्रसाधन का परित्याग केवल विवायें करती हैं । बहुत सी विधवायें केवल माँग में सिन्दूर डालना बन्द कर देती हैं, शरीर संस्कार पूर्ववत् करती रहती हैं ।
गाथा क्रमांक ५००
जोइसिय कोस चुक्कसि विचित्तकरणाइ जाणमाणो वि ।
तह कह वि कुणसु सिग्धं जह सुक्कं निच्चलं होइ ॥ ५०० ॥
३८३
( ज्योतिषिक कि प्रमाद्यसि विचित्रकरणानि जानानोऽपि ।
तथा कुरुकथमपि शीघ्रं यथा शुक्रो (शुक्रं) निश्चलो (निश्चलं) भवति ॥ )
किसी ज्योतिषी पर आसक्त बन्धकी को उक्ति है । टिप्पणी में शुक्र के निश्चल होने का ज्योतिष-पक्षीय अर्थ अज्ञात बताया गया है ( पृ० ५१५) । श्लिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
विचित्तकरण
१. विशेष रूप से चित्रा नक्षत्र का कार्य या प्रभाव, दिन के
विभिन्न करण संज्ञक भाग ।
२. रति के विचित्र आसन
१. वज्जालग्गं, ( अंग्रेजी संस्करण ) पृ० ५०१
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