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________________ ३८० वज्जालग्ग ___ आशय यह है कि नायक ने रमण काल में तेरे कपोलों को इस प्रकार काटखाया है कि राक्षस भी सन्देशवाहिका दूतियों को वैसी निर्दयता से नहीं काटते । मुझे इसका खेद है कि मेरे अधीन रह कर तेरी यह शोचनीय दशा हो गई है। शब्दार्थ-खज्जति = खाद्यन्ते, खाई जाती हैं। इय = एवम्, इस प्रकार फुड = स्फुट, स्पष्ट या सचमुच, हिन्दी फुर अह = अथवा, अब अम्हं वसे गयाण = अस्माकं वशे गतानाम्, हमारे वश में गये हुए लोगों का। गयाण अम्हं वसे = गतानाम् अस्माकं वशे, हम गये हुए ( गये गुजरे, नष्टप्राय ) लोगों के अधीन । गाथा क्रमांक ४२३ तुह संगमदोहलिणीइ तीइ सोहग्गविभियासाए | नवसियसयाइ देंतीइ सुहय देवा वि न हु पत्ता ।। ४२३ ।। इसके चतुर्थपाद का अर्थ अस्पष्ट बताया गया है ( पृ० ४२८-४९२ )। रत्नदेव भी मौन हैं। अर्थ-हे सुभग ! प्रचुर धन के कारण जिसको आशा बढ़ गई थी, जिसे तुम्हारे संगम की इच्छा थी और जो सैकड़ों मनौतियां कर रही थी, उसे देवता भी नहीं मिले। आशय यह है कि धनवती नायिका धन के बलपर पूजा-पाठ और मनौतियाँ करके देवताओं की कृपा से नायक का समागम प्राप्त करना चाहती थी। परन्तु नायक का समागम देवानुकम्पा से साध्य नहीं था, अतः नायिका को ऐसे कदम भी नहीं मिले, जो मनौतियां लेकर मनोरथ पूर्ण कर सकते । काम्य नायक-सम्प्राप्ति देवाराधना से भी असाध्य होने के कारण नितान्त दुर्लभ थी । अथवा 'देवा वि न हु वत्ता' का तात्पर्य यह है कि मनौतियाँ करने वाली नायिका को सुराधिक लावण्यशाली नायक का समागम तो दूर रहा, तुच्छ देवता (जो देवन-प्रकाशन-विशिष्ट होने पर भी सौन्दर्यादि में नायक से बहुत घट कर हैं ) भी संभोगार्थ नहीं मिले। इससे नायक का देवाधिक-लावण्यशालित्व व्यंजित होता है । यदि चतुर्थ-पाद में स्थित 'सुहय देवा' को समस्त पद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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