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वज्जालग्ग
हुये हैं" लिखा है । परन्तु इसे स्वीकार करने पर 'मज्झं से किविण-दाण-सारिच्छा' यह वर्णन पिष्टपेषण जैसा प्रतीत होने लगता है। जिस मार्ग से नवजात शिशु के लिये दुग्ध-धारा प्रवाहित होती है, वह स्त्रियों के चूचुक में संतानोत्पत्ति के पश्चात् ही स्फुटित होता है। अतः अमुख का अर्थ इस प्रकार हैअमुख = १. अभद्रमुख' (खल पक्ष )
२. जिसमें छिद्र ( मुख ) नहीं हैं। अर्थ-( अप्रजावतीत्व के कारण ) जिसमें दुग्ध-रन्ध्र नहीं हैं, वे कुटिलाकृति स्तन, अभद्रमुख एवं कुटिल व्यवहार वाले खल के समान हैं । उनका मध्यांश कृपणों के दान के समान है और वे वक्षःस्थल में यों नहीं समा रहे हैं जैसे सत्पुरुषों के मनोरथ उनके मन में नहीं समाते ।
गाथा क्रमांक ३०९ अमया मओव्व समया ससि व्व हरि करि सिरो व्व चक्कलया। किविणब्भत्थण-विमुहा पसयच्छि पओहरा तुज्झ ॥ १०९॥ अमृतमयाविव समदी ( समृगौ ) शशीव हरि करि शिर इव वर्तुलौ । कृपणाभ्यर्थन विमुखी प्रसृत्यक्षि पयोधरौ तव ॥
रत्नदेवकृत उपर्युक्त छाया के आधार पर प्रो० पटवर्धन ने 'अमयामओन्व' और 'किविणभत्थण विमुहा' का भाव अस्पष्ट घोषित किया है एवं टीकाकारसम्मत 'अमया-मय (अमृतमयौ) पाठ को, उपमा नहीं, उत्प्रेक्षा के रूप में मान्यता दी है । परन्तु गाथा को प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर उक्त टिप्पणी असंगत प्रतीत होती है। कवि ने प्रत्येक उपमान के साथ उसका श्लिष्ट सामान्य धर्म उपन्यस्त किया है । अतः 'मअ' का सामान्य धर्म भी उसके साथ रहना चाहिये। गाथा में बार-बार व्व की आवृत्ति समान-क्रम की सूचना देती है । संस्कृत टीका के आधार पर 'अमया मओव्व' को अमृतमयाविव ( उत्प्रेक्षा के रूप में ) स्वीकार कर लेने पर इस सलोने पद्य में उपमाओं की सुरभित माला प्रारंभ में ही टूट जायगी। अतः गाथा के प्रथम चरण की छाया इस प्रकार होगी:निर्विकारौ ( अमतौ ) मद इव समदी ( समृगौ """"।
१. तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नअर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ।। २. वज्जालग्गं ५० ४६८
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