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________________ वज्जालग्ग ३६७ संचालित ) तीक्ष्ण खड्गों के समान, पराये पुरुषों का जीव लेने वाले (वियोग में) समादत एवं पक्षमयुक्त तथा कृष्ण-धवल कान्ति वाले तेरे नेत्र किस-किस को नहीं मार डालते ? खड्गपक्ष में 'असियसिय' को निम्नलिखित व्याख्या भी संभव है असितं कृष्णवणं श्रिते आश्रिते कृष्णच्छवि-युक्त इत्यर्थः। इस दृष्टि से भी पूर्वोक्त अर्थ हो होगा। गाथा क्रमांक ३०२ अमुहा' खलो व्व कुडिला मज्झं से किविणदाण-सारिच्छा । थणया सप्पुरिसमणोरह व्व हियए न मायति ।। ३०२ ॥ "किविण-दाण-सारिच्छा' पर टिप्पणी करते हुए प्रो० पटवर्धन ने लिखा है कि "इसमें उपमा को उभयपक्षीय संगति स्पष्ट नहीं है। कृपणों का दान व्यवहार में दिखाई नहीं देता क्योंकि वे लोभवश दान देते ही नहीं हैं, परन्तु स्तनों के मध्य भाग तो स्पष्ट दिखाई देते हैं। दोनों में एक विद्यमान वस्तु है और अन्य अविद्यमान ! अतः उनका साम्य किस आधार पर वर्णित है--यह समझ में नहीं आता है।" इस सन्दर्भ में यह समझना चाहिये कि उक्त पद में उपमा के अन्तराल में अत्युक्ति है । गाथा के उत्तरार्ध में भी उपमा-द्वारा स्तनों के परिणाह का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है । अत्युक्ति दूसरों का दूषण भले ही हो पर कवियों का भूषण है। बिहारी ने तो यहाँ तक कह दिया है करी विरह ऐसी तऊ, गैल न छाड़त नीच । दीने हू चसमा चखनि, चाहै लखै न मीच ॥ जायसी ने लंक ( कटि ) को मृणालतन्तु के समान क्षीण बताया है-- मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहुँ बिच लंक-तार रहि गए ॥ -पद्मावत, नखसिख खंड प्रो० पटवर्धन ने अमुहा का स्तन-पक्षीय अर्थ "जिसके चूचुक विकसित नहीं १. संदेश-रासक में भी स्तनों को मुखरहित बनाकर उनको तुलना खलों से की गई है सिहणा सुयण-खला इव थड्ढा निच्चुन्नया य मुहरहिया । संगमि सुयण सरिच्छा आसासहिं बेवि अंगाई॥-द्वितीय प्रक्रम, ३६ २. वज्जालग्गं, पृ० ४६६ ३. वही, पृ० ४६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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