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वज्जालग्ग
समाणियपत्तलं - तीक्ष्णता को प्राप्त
परपुरिसजोव हरण = अन्य पुरुषों के जीव को हरने वाले यदि 'सिय' को शित मानकर उसका अर्थ तोक्षण स्वीकार करें तो पूर्ववर्ती विशेषण को पुनरुक्ति होती। सिय शब्द वस्तुतः संस्कृत श्री का अपभ्रंश रूप है। महाकवि स्वयंभु ने 'पउमचरिउ' में इसका प्रयोग किया है:
गेय-पणच्चियाई वर वज्जइँ ।
परियण पिण्डवास सियरज्जइँ ॥ ---जुज्झ कंड, ६७.१५।६ 'भविस्सयत्त कहा' में धनपाल ने भी इसी अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है:सियवंतु वियणु विच्छाय छवि णं विणु नोरि कमलसरु ।
-चतुर्थ सन्धि, पृ० २६ वर तरु सिहरगि दिटु पडाय सुहावणिय ।।
हक्कार इ नाइं सन्नई सिय भविसहो तणिय ॥ -षष्ठ सन्धि, पृ० ४५ _ 'पाइयसहमहण्णव' में सिय को सिरी (श्री) का पर्याय लिखा है। श्री का अर्थ शोभा या कान्ति भी होता है । शेष शब्दों के अर्थ निम्नलिखित हैं:समाणिय = १. सम्मानित या आदत ( नेत्र पक्ष में)
२. साथ में लाये गये या संचालित ( खड्ग पक्ष में ) पत्तल = १. पक्ष्मयुक्त ( नेत्र पक्ष में, देखिये पाइयसद्दमहण्णव )
२. तीक्ष्ण' (खड्ग पक्ष में ) पर = १. अन्य ( नेत्र पक्ष में )
२. शत्रु ( खड्ग पक्ष में ) परः श्रेष्ठऽरिदूरान्योत्तरेल्कीवं तु केवले ।
-मेदिनीकोश दोनों पक्षों में सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार है-अरी मुग्धे, शत्रु के सैनिकों ( पुरुषों ) का वध करने वाले, कृष्ण कान्तियुक्त एवं साय में लाये गये ( या १. देवसेनगणिकृत सुलोचनाचरिउ को निम्नलिखित पंक्तियों द्वारा पत्तल शब्द का उक्त अर्थ समर्थित है--
णयण इंदोहरु कसुणुज्जलाई ।
णं वम्महं कंडई पत्तलाई । ---उद्धृत, अपभ्रंश साहित्य, पृ० २१८ (हरिवंश कोछड़ कृत)
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