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________________ वज्जालग्ग ३६५ है परन्तु तात्पर्य अस्पष्ट बताया है --. Exact sense of this stanza is not clear. (पृ० ४६३ ) गाथा का रणरणय ( रणरण + क ) शब्द उद्वेगोत्पादक के अर्थ में है (पाइयसहमहण्णव )। उद्गार का अर्थ है-वचन । 'पंचमसर पसरुग्गार-गम्भिण' का अभिप्राय ऐसे मार्मिक वचन से है, जिसके अन्तराल में पंचमस्वर का प्रसार रहता है। कठिन कार्यरत सेवक को बीच-बीच में लम्बी साँसें लेकर मार्मिक वचनों से युक्त पंचमराग गाते देखकर स्वामिनी, जिसे यह पता नहीं था कि वह मन ही मन छिपकर उससे प्रेम करता है, कुछ ताड़ जाती है । सेवक अपना अपराध छिपाने के लिये कहता है हे विशाल लोचने, जिनके भीतर पंचमस्वर का प्रसार रहता है, उन मार्मिक वचनों से युक्त, दीर्घ, स्थूल ( स्पष्ट या गम्भीर ) और उद्वेगोत्पादक निःश्वास अपने कार्य से भी आते हैं। आशय यह है-ऐसे उद्गारपूर्ण पंचमराग और दीर्घ निःश्वास केवल प्रणयप्रसूत नहीं होते । पराधीन सेवक विवशता की स्थिति में जब सेवा कार्यरत रहते हैं, तब भी कभी-कभी वेदना-भरे गीत गाकर लम्बी साँसें लेते हैं । गाथा क्रमांक २९१ नयणाइ समाणियपत्तलाइ परपुरिसजीवहरणाई। असियसियाइ य मुद्धे खग्गाइ व कं न मारंति ॥ २९१ ॥ इस पद्य में श्लिष्ट विशेषणों के द्वारा नेत्रों और खड्गों का औपम्य वणित है। रत्नदेव ने विशेषण-पदों में श्लेष का अस्तित्व स्वीकारते हये भी कोई विशेष व्याख्या नहीं दी। केवल 'असिय-सियाइ' का रूपान्तर 'असित सितानि' देकर छोड़ दिया है। प्रो० पटवर्धन ने इस पर आपत्ति करते हुये लिखा है कि नेत्रों का विशेषण 'असितसित' ( कृष्ण-धवल ) हो सकता है परन्तु खड्गों के लिये अनुपयुक्त है, क्योंकि साहित्य में उनका वर्ण कृष्ण बताया गया है । अतः 'असियसिय' का अनुवाद 'असितशित' होना चाहिये । परन्तु यह सुझाव स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि उन्होंने शेष विशेषणों के अथ इस प्रकार दिये हैं--- १. वज्जालग्गं, पृ० ४६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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