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वज्जालग्ग
गाथा में प्रयुक्त 'सरिसतरु' पद को अशुद्ध बताते हुये श्री पटवर्धन ने सरिस शब्द को लुप्तविभक्तिक माना है परन्तु उक्त पद न तो अशुद्ध है और न लुप्तविभक्तिक | सरिसतरु समस्त पद है ।
गाथा क्रमांक २८१
जइ कह वि ताण छप्पन्नयाण तणुयंगि गोयरे पडसि । ता थोरवसण दाहेक्कमंडिया दुक्करं जियसि ॥
अंग्रेजी टिप्पणी में 'थोरवसण दाहेक्कमंडिया' पाठ स्वीकार किया गया है । इसका आधार एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति है । रत्नदेव ने 'थोर वसह - दाहेक्क मंडिया' पाठ मान कर उसकी छाया 'उत्सृष्टवृषभदा हैकमण्डिता' की है । परन्तु थोर का अर्थ उत्सृष्ट नहीं है । टीकाकार ने अर्थ की स्पष्टता के लिए संभवतः वैसा अनुवाद किया होगा । स्थूल होना चाहिए । अंग्रेजी अनुवादक ने लिखा है कि 'थोरवसह दाहेक मंडिया' का भाव स्पष्ट नहीं है । टीकाकार ने इसकी छाया तो दी है पर अर्थ पर प्रकाश नहीं डाला है । मूल में वसह ( वृषभ ) का अर्थ सामान्य बैल नही, साँड़ है । सांड़ जब छोड़ा जाता है तब तपे लोहे से उसका शरीर अंकित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को गांवों में सांड़ दागना कहते हैं । दाहांक से ही साँड़ की पहचान होती है और वह स्वच्छन्द खेतों में चर कर खूब मोटा हो जाता है । कोई उसे बाँध कर हल में नहीं जोतता है । गाथा में दाह शब्द श्लिष्ट है—
२८१ ॥
दाह = १. तप्त लौह शलाका से जलाना या अंकित करना ( साँड़पक्ष ) २. जलन पीडा ( तन्वंगीपक्ष )
गाथार्थ :- हे कृशांगि ( दुर्बल अंगोंवाली ) यदि किसी प्रकार तुम उन चतुर जनों के समक्ष पड़ गई तो स्थूल साँड़ के समान एक मात्र दाह ( तप्तशलाकांक और पीडा या जलन) से युक्त होकर कठिनाई से जीवित रहोगी । वसह के स्थान पर वसण पाठ स्वीकार करने पर यह अर्थ होगा
एक मात्र भारी दुःख की जलन से युक्त होकर कठिनाई से दिन काटोगी ।
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गाथा क्रमांक २८८
अप्पण कज्जेण विदीहरच्छि थोरयर-दीहरणरणया । पंचमसरपसरुग्गार गब्भिणा एंति नीसासा || २८८ ॥
यह रत्न देव द्वारा अव्याख्यात है । प्रो० पटवर्धन ने इसका अनुवाद तो दिया
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