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________________ गाथा क्रमांक २५५ भमर भमंतेण तए अणेयवणगहणकाणणुद्दे । दिट्ठो सुओय कत्थ वि सरिसतरू पारिजास्स ॥ २५५ ॥ वज्जालग्ग इस गाथा के द्वितीय पाद में वन, गहन और कानन तीन समानार्थक शब्दों का सह-प्रयोग है । श्री पटवर्धन ने संभावित पुनरुक्ति दोष के मार्जन के लिये वन का अर्थ वृक्ष, कानन का अर्थ जंगल और गहन का अर्थ A thicket (of trees) लिखा है । उसी टिप्पणी में पुनरुक्ति का दूसरा समाधान इस प्रकार है: "वन उपवन के अर्थ में प्रयुक्त हो सकता है और कानन जंगल के ।" उपर्युक्त दोनों समाधान केवल संभावना पर अवलम्बित होने के कारण निरर्थक और सारहीन हैं। गाथा के 'वन गहण काणणुद्देस' पद में पुनरुक्ति दोष नहीं, पुनरुक्तवदाभास' नामक अलंकार है । वहाँ तीनों शब्द समानार्थक होने के कारण पुनरुक्ति का आभास मात्र कराते हुये प्राकरणिक स्वार्थ में विश्रान्त होकर चमत्कार उत्पन्न करते हैं। तीनों के अर्थ इस प्रकार हैं:१. वन २ = २. गहन ३ गृह, वन = दुष्प्रवेश गह्वर, वन ३. कानन = गृह, वन गाथा का अर्थ यह होगा : हे भ्रमर ! अनेक गृहों, गह्वरों और वनप्रान्तों में भ्रमण करते हुये तुमने कहीं भी पारिजात के समान वृक्ष देखा और सुना है ? १. आपाततो यदर्थस्य पौनरुक्त्येन भासनम् । पुनरुक्तवदाभासः स भिन्नाकारशब्दगः ॥ २. क्लीवं स्यात् कानने नीरे निवासे निलये वनम् वनं नपुंसकं नीरे निवासालयकानने वनं प्रस्रवणे गेहे प्रवासेऽम्भसि ३. कलिलं गहनं समे । " गहनं कलिले त्रिषु । नपुंसकं गह्वरे स्याद् दुःखकाननयोरपि ॥ 'गहनं वन गुह्ययोः । "" गह्वरे कलिले चापि " ४. काननं विपिने गेहे परमेष्ठिमुखेऽपि च काननं तु ब्रह्मास्यं विपिने गृहे । Jain Education International ३६३ For Private & Personal Use Only - साहित्यदर्पण, १० - अमरकोश - मेदिनीकोश - अनेकार्थसंग्रह — अमरकोश - मेदिनीकोश - अनेकार्थसंग्रह — मेदिनीकोश - अनेकार्थसंग्रह www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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