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( xxi ) रौद्र और भयानक रसों के स्वतन्त्र एवं असंकीर्ण उदाहरण नहीं मिलते हैं । इस प्रकार वज्जालग्ग में विभिन्न रसों का अभाव नहीं है, परन्तु उसका प्रधान रस शृंगार ही है । सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रणय के मनोरम चित्रों से परिपूर्ण है। संयोग और वियोग के विविध पटलों का जैसा सुरम्य उद्घाटन वज्जालग्ग में है, वैसा बहुत कम ग्रन्थों में दिखाई देता है। यहाँ प्रणय केवल मानवीय-हृदय की ही निधि है, पशुओं और मूक वनस्पतियों के भी निश्छल हृदय से उसका तरल उत्स फूटने लगता है । प्रेमी की शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक अन्तदशाओं का बड़ी ही सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है। पेम्मवज्जा में बताया गया है कि प्रेम विष्णु के समान अनादि और परमार्थ का प्रकाशक है। आलाप, वक्रोक्ति, संसर्ग और औत्सुक्य-ये उसके चार सोपान हैं। जहाँ जागरण नहीं है, ईर्ष्या, खेद एवं मान नहीं है और जहाँ सच्ची चाटुकारिता नहीं है, वहाँ प्रेम भी नहीं है । उभयपक्षी प्रेम ही आनन्ददायक होता है। उसकी गति शुकचंचुवत् वक्र है, क्योंकि प्रिय को न देखने पर उत्सुकता, देखने पर ईर्ष्या, सुख में स्थित होने पर मान और दूर चले जाने पर दुःख होता है। प्रेमी अपने को सैकड़ों दुःखों में डाल देता है । सच्चा प्रेम वहीं समझना चाहिये, जहाँ दूर चले जाने पर भी, अन्य से सम्बन्ध जोड़ लेने पर भी मन नहीं फिरता है। मनसा वाचा कर्मणा जिसका कोई प्रेमी नहीं है, वही सुख की नींद सोता है । इस लोक में कोई भी ऐसा नहीं दिखाई देता, जिसके दिन किसी को हृदय अर्पित कर देने पर सुख से बीतते हों। प्रेम व्यक्ति को उपहास्य बनाकर छोड़ता है । मान के चले जाने, स्नेह के नष्ट हो जाने और सद्भाव के न रह जाने पर, केवल अभ्यर्थना के बल पर प्रेम नहीं टिक सकता। प्रेम के क्षीण हो जाने के पाँच कारण हैं-न देखना, अधिक देखना, देखने पर भी न बोलना, मान और प्रवास । दो प्रेमियों में जब विरोध हो जाने पर पुनः सन्धि होती है, तब उष्ण करके शीतल किये हुये जल के समान प्रेम का स्वाद विकृत हो जाता है । सारी चतुराई तभी तक है, जब तक किसी से प्रेम नहीं हो जाता । कामदेव के पाँच बाण हैं--दृष्टि, दृष्टि का प्रसार, दृष्टि के प्रसार से रति, रति से सद्भाव और सद्भाव से प्रेम । मदिरा चन्द्रकिरण, मधुमास, कामिनियों का संभाषण और पंचम स्वर का गीत-ये उसके परिकर हैं । वज्जालग्ग की निम्नलिखित वज्जायें उस महामहिमाशाली प्रणय का निरूपण करती है-- १. व्याध
३. हरिण (मानवेतर प्रणय) २. पंचम
४. नयन
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