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के समान है, यौन जरा के साथ उत्सन्न होता है, सब दिन समान नहीं होते, तब भी लोग क्यों निष्ठुर बन जाते हैं
वरिससयं णरआऊ तस्स वि अद्वेण हति राईओ। अद्धस्स वि अद्धयरं हरइ जरा बालभावो य ।। जीयं जलबिंदूसमं उप्पज्जइ जोव्वणं सह जराए। दियहा दियहेहि समा ण हुंति कि निठुरो लोओ।
-शान्त रस दरिद्र सेवक भूमि पर शयन करता है, जीर्ण चीर बांधता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और भिक्षा माँगता है, यद्यपि वह इस प्रकार मुनियों का आचरण करता है, परन्तु ( मुनियों के समान ) उसे धर्म नही प्राप्त होता है। कितना आश्चर्य है
भूमीसयणं जरचीरबंधणं बंभचेरयं भिक्खा । मुणिचरियं दुग्गयसेवयाण धम्मो परं नत्थि ॥
-अद्भुत रस कोई वीर अश्व पर इतनी दृढ़ता से बैठा हुआ था कि पेट पर कृपाण का प्रहार होने से आधा शरीर कट कर पृथ्वी पर गिर गया और आधा अश्व की पीठ पर ही रह गया
गाढासणस्स कस्स वि उयरे निहयस्स मंडलग्गेण ।
अद्धं महीइ पडियं तुरंगपिट्ठिठ्ठियं अद्धं ॥ यहाँ वीर रस अदभुत का अनुग्राहक है ।
वीर ने एक पद तो गजराज के दाँत पर रख दिया और दूसरा कुंभस्थल पर । तीसरे पद के लिए स्थान न पाने पर उसकी वही शोभा हुई, जो बलि को बांधते समय विष्णु की हुई थी
एक्कं दंतमि पयं बीयं कूभंमि तइमलहंतो ।
बलिबंधविलसियं महुमस्स आलंबए सुहडो॥ यहाँ उपमा से उपकृत वीर रस का अप्रतिम वर्णन है।
घायल भट रणांगण में पड़ा है। उसके अंग शोणित से लिप्त हो गये हैं। एक शृगाली उसकी छाती पर बैठकर मुँह सूंघ रही है। लगता है जैसे कोई कामिनी अपने प्रेमी का मुख चूम रही हो
वच्छत्थलं च सुहडस्स रुहिरकुंकुमविलित्तयंगस्स । वर कामिणि व्व चुंबइ उरे निसन्ना सिवा वयणं ।।
-बीभत्स रस
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