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वज्जालग्ग
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टीकाकारों ने 'विराई' को छाया 'स्थिराणि' की है और पूर्वार्ध का यह अर्थ दिया है
__ "कौन यहाँ सदा सुखी है, किसकी लक्ष्मी सदा रहती है और किसका प्रेम स्थिर है।"१ परन्तु स्थिर पर्याय विर शब्द प्राकृत कोषों में दुर्लभ है। पाइयसद्दमहण्णव में रा क्रिया संगृहीत है। कोषकार ने उसे दा का धात्वादेश लिखा है। परन्तु वह क्रिया पाणिनीय धातु पाठ में उसी अर्थ में उपलब्ध है। हम लच्छी वि राइ पेम्माई (लक्षमीरपि राति ददाति प्रेमाणि) पढ़ कर गाथा के पूर्वार्ध का अर्थ करते हैं :
यहाँ कौन सदा सुखी है और लक्ष्मी भी किसे सदैव प्रेम प्रदान करती है ? (अर्थात् लक्ष्मी की कृपा सदैव नहीं रहती ।)
गाथा क्रमांक १५४ ओलग्गिओ सि धम्मम्मि होज्ज एण्हि नरिंद वच्चामो।
आलिहियकुंजरस्स व तुह पहु दाणं चिय न दिळें ॥ १५४ ॥ श्री पटवर्धन ने 'सि' को 'ओलग्गिओ' से नहीं अपितु 'होज्ज' से अन्वित कर "सि होज्ज' का अर्थ 'त्वं भवेः या भूयाः' किया है जो प्रामादिक है । 'सि' का अर्थ यहाँ 'त्वम्' नहीं है । वह अपने क्रियार्थ के साथ ही 'ओलग्गिओ' से अन्वित है।
गाथा क्रमांक १५९ भंजंति कसण-डसणा अब्भंतर-संठिया गइंदस्स ।
जे उण विहुर-सहाया ते धवला बाहिरच्चेव ॥ १५९ ।। रत्नदेव ने इसकी ठीक व्याख्या की है । अंग्रेजी अनुवाद क्लिष्ट कल्पनाप्रसूत है । अनुवादक ने विहुरसहाय को सहाय विहुर और पुनः सहाय को साहाय्य (भाव प्रधान निर्देश) मानकर यह अर्थ किया है
"गजेन्द्र के कृष्णदन्त जो खाने का कार्य करते हैं, वे भीतर रहते हैं तथा जो श्वेतदन्त खाने में कोई सहायता नहीं करते, वे बाहर रहते हैं।"
गाथा का अन्य अर्थ यों दिया गया है"जो सेवक कठिन परिश्रम करते हैं वे स्वामी के द्वारा कुरूप होने पर भी
१. देखिये, अंग्रेजी अनुवाद और संस्कृत टीका ।
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