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वज्जालग्ग
__ गाथा क्रमांक ११० अगणिय-समविसमाणं साहसतुंगे समारुहंताणं ।
रक्खइ धीराण मणं आसन्न भयाउलो दिव्वो ॥ ११० ॥ प्रो० पटवर्धन ने 'रक्खइ धीराण मणं' (रक्षति धीराणां मनः) का अर्थ “Preserve the balance of their minds or to steady up their minds” लिखा है, जो ठीक नहीं है । 'मन रखना' एक महाविरा है, जो आज भी हिन्दी में प्रचलित है। इसका अर्थ है-अनुकूल कार्य करना। वैसे संस्कृत में मन का अर्थ संकल्प और रुचि भी होता है। इस दृष्टि से उद्धृत गाथा का अर्थ निम्नलिखित है :
निकटवर्ती (पराजयजनित) भय से आकुल दैव, सम एवं विषम (अनुकूल एवं प्रतिकूल) अवस्थाओं को न गिनने वाले (परवाह न करने वाले) एवं साहस के समुन्नत शिखर पर आरोहण करने वाले धीर पुरुषों का मन रखता है (अनुकूल कार्य करता है या उनके संकल्प को पूर्ण करता है)।
गाथा क्रमांक १२१ सत्थत्थे पडियस्स वि मज्झेणं एइ कि पि तं कजं ।
जं न कहिउं न सहिउं न चेव पच्छाइउं तरइ ।। १२१ ।। रत्नदेव ने 'सत्थत्थे' का अर्थ 'स्वस्थार्थे' और प्रो० पटवर्धन ने 'शास्त्रार्थे' लिखा है परन्तु इन दोनों की अपेक्षा 'शस्तार्थे' (शस्ते श्लाघ्येऽर्थे प्रयोजने अर्थात् प्रशंसनीय प्रयोजन में) अधिक संगत है। अतः सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार है :
श्लाघ्य प्रयोजन में लगे हुए (पड़े हुए = पडियस्य) व्यक्ति का भी कार्य बीच मे कुछ ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है कि जिसे वह न कह सकता है, न सह सकता है और न छिपा सकता है।
'तरइ' का अर्थ शक्नोति है, शक्यते नहीं ।
गाथा क्रमांक १२७ को एत्थ सया सुहिओ कस्स व लच्छी विराई पेम्माइं। कस्स व न होइ खलणं भण को हु न खंडिओ विहिणा ॥ १२७ ।।
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