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वज्जालग्ग
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वर्णन है जिनके सुख-दुःख सदैव समान रहते हैं, चन्द्रमा और पूर्णिमा का नहीं । कवि का आशय यह है :--पूर्णिमा चन्द्रमा को धवल बनाती है और चन्द्रमा पूर्णिमा को। दोनों सुख में ही एक दूसरे के सहायक हैं, दुःख में नहीं । जिनके सुख-दुःख समान होते हैं, वे सच्चे मित्र तो मैं समझता हूँ, पुण्य के बिना नहीं मिलते हैं।
गाथा क्रमांक ९० छन्नं धम्म पयडं च पोरिसं परकलत्तवंचणयं । गंजणरहिओ जम्मो राढाइत्ताण संपडइ ।। ९० ॥
छन्नो धर्मः प्रकटं च पौरुषं परकलत्रवञ्चनम् ।
कलङ्करहितं जन्म भव्यात्मनां संपद्यते ॥ यहाँ राढाइत्ताण की छाया भव्यात्मनाम् को गई है। इत मतुप का अर्थ देने वाला प्रत्यय है, आत्मन् शब्द से उसका सम्बन्ध नहीं है। 'भव्यत्ववताम्' यह छाया होगी।
गाथा क्रमांक १०६ संघडियघडियविडिय-घडंत-विघडंत-संघडिजंतं ।
अवहत्थिऊण दिव्वं करेइ धीरो समारद्धं ॥ १०६ ।। यह पद्य रत्नदेवद्वारा अव्याख्यात है। प्रो० पटवर्धन ने लिखा है कि इसका भाव अस्पष्ट है । उन्होंने घटनादि को समारब्ध कार्य का विशेषण मानकर यह अर्थ किया है :
संघटन = Planning
घटन = Starting परन्तु उपर्युक्त पद्य में प्रयुक्त सभी विशेषण दैव (भाग्य) के हैं और उनके अर्थ निम्नलिखित हैं :
घडिय% बना हुआ विघडिय = बिगड़ा हुआ
संघडिय = संयुक्त, साथ लगा हुआ इस दृष्टि से सम्पूर्ण गाथा का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा :-जो पहले साथ था या बना था या बिगड़ गया था एवं अब जो बन रहा है या बिगड़ रहा है या साथ दे रहा है, उस भाग्य को छोड़कर धोरपुरुष समारब्ध कार्य को कर डालता है।
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