________________
( xviii ) तो उनमें भी सर्वत्र विषय-भेद नहीं हैं । बहुत सी वज्जायें बिल्कुल समान भावभमि का ही स्पर्श करती है। विरह, प्रोषित, प्रियानुराग, हृदयसंवरण, बालासंवरण और ओलग्गाविया की भावभूमि एक है। उनमें प्रायः विरह का वर्णन है। हंस और चन्दन में केवल प्रतीक-भेद है, विषय-भेद नहीं। अप्रस्तुतप्रशंसा के स्थलों पर प्रायः भिन्न-भिन्न वज्जाओं में एक ही व्यंग्य को पृथक प्रतीकों के माध्यम से प्रतीति कराई गई है। ऐसे स्थलों पर बाह्य-भेद होने पर भी आन्तरिक भेद नगण्य है । विभिन्न वज्जाओं में वैसे भी बिल्कुल समान भाव और समान पदावली प्रायः दृष्टिगत होती है । इस दोष के मार्जन के लिये यही कहा जा सकता है कि संग्रहकार ने समान भाव, समान रचना-पद्धति और समान शब्द-योजना से सम्बन्धित गाथाओं को तुलनात्मक दृष्टि से एक साथ संगृहीत कर दिया होगा । परन्तु यह सब होने पर भी वज्जालग्ग सरसता और मौलिकता की दृष्टि से एक अनुपम काव्य है । उसमें भाव, कल्पना और शिल्प-तीनों का अद्भुत साहचर्य है । रसों का तारल्य जहाँ उसे भाव पक्ष के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करता है, वहीं शैलीगत वैदग्ध्य और भणिति भंगिमा के कारण उसका कलापक्ष भी कमनीय बन गया है । इसी कारण वज्जालग्ग को गाथाओं में जहाँ प्राचीन काव्य-रूढ़ियों का अनुवर्तन है, वहाँ भी एक नवत्व दिखाई देता है। करुणा, मैत्री, परोपकार, दान, प्रणय, नीति, सदाचार, उदारता, उत्साह आदि श्रेष्ठ मानवीय गुणों की सत्प्रेरणा देने वाला यह काव्य अपने ढंग का अनूठा है। यदि इसमें उच्छृङ्खल कुलटाओं के कुटिल स्वैराचार का जुगुप्सित वर्णन है, तो महिमामयी सतियों के पवित्र आदर्श भी विद्यमान हैं। यदि अरुन्तुदभाषी दुष्टों की वक्रगति का निरूपण है, तो समाज-सेवी स्वार्थ-हीन सज्जनों के सरल, श्लाघ्य चरित के भी हृदयावर्जक चित्र हैं। यदि एक ओर अपने लिये भी, अजित द्रव्य का व्यय न करने वाले मक्खीचूस कृपणों की निन्दा है, तो दूसरी ओर उदारचरित महापुरुषों की प्रशंसा भी है । एक ओर उद्दाम यौवन के वासनापूर्ण बीभत्स चित्र है, तो दूसरी ओर जरा की अपरिहार्य विभीषिका भी है। एक
ओर परिवार के लिए तिल-तिल जोड़ने वाली तपःपूत कुलांगनाओं के कमनीय एवं कर्मठ व्यक्तित्व को मनोरम झाँकी है, तो दूसरी ओर विषय-लोलुप लोलेन्द्रिय धनियों का रक्त चूसने वाली प्रपंचबहुला वारविलासिनियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ भी किया गया है । इस प्रकार यह काव्य समाज का यथार्थ एवं उभयपक्षी चित्र प्रस्तुत करने के कारण कोरे आदर्शवादी काव्यों के समान एकांगी नहीं है । समाज के शिव और अशिव, पीयूष और कालकूट, राम और रावण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org