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________________ ( xvii) देखो, पिछवाड़े स्थित सुलभ स्त्रीरत को छोड़कर वह धार्मिक कैसे रतों (संभोगों) के लिए वन में भटक रहा है । रचना का उद्देश्य संग्रहकार के संग्रह का उद्देश्य भले ही त्रिवर्ग रहा हो, मुझे इस रचना का उद्देश्य कुछ अन्य ही प्रतीत होता है, जो किसी भी दशा में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। तीसरी वज्जा में प्राकृत काव्यों, प्राकृत कवियों और प्राकृत काव्यों के विदग्ध पाठकों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया गया है । देशी शब्दों से रचित, मधुर शब्दों और अक्षरों में निबद्ध स्फुट-गम्भीर गूढार्थ प्राकृत काव्यों को पढ़ने का उपदेश दिया गया है । इतना ही नहीं, यह भी कहा गया है कि ललित, मधुराक्षरयुक्त, युवतीजनवल्लभ, शृंगारपूर्ण प्राकृत काव्यों के रहते कौन संस्कृत पढ़ सकता है ? इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि ग्रन्थकार वज्जालग्ग के माध्यम से प्राकृत भाषा और साहित्य का प्रचार और प्रसार चाहते थे। वस्तुतः इसी उद्देश्य को समक्ष रखकर उन्होंने इतस्ततः बिखरी प्राकृत की अमूल्य गाथाओं को संगृहीत कर एक ऐसा मनोरम काव्य-ग्रन्थ बनाया, जिसकी सरसता से आकृष्ट होकर संस्कृत काव्य-प्रेमी भी संस्कृत छोड़ प्राकृत काव्य का ही रसास्वादन करें। वज्जालग्ग की सरसता को देखते हुये हम निःसंकोच कह सकते हैं कि संग्रहकार अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल हैं। इसके अतिरिक्त वज्जालग्ग के संग्रह का अन्य भी हेतु है । उस युग में धीरे-धीरे अपभ्रंश और प्राकृत को छोड़कर सामान्य जन लोकभाषा काव्य की ओर आकृष्ट हो रहे थे। ऐसी दशा में प्राकृत की श्रेष्ठ एवं अप्रसिद्ध रचनाओं की सुरक्षा का भी प्रश्न था। संग्रहकार की सूक्ष्म दृष्टि इस भावी संकट पर पड़ी और उन्होंने श्रेष्ठ रचनाओं को एकत्र कर उन्हें नष्ट होने से बचा लिया, साथ ही पाठकों को एक ही ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषयों पर विभिन्न कवियों की इन्द्रधनुषी कल्पनाओं से मंडित मनोहर सूक्तियों के रसास्वादन का अमूल्य अवसर भी प्रदान किया। साहित्यिक मूल्य वज्जालग्ग विभिन्न कवियों की उत्कृष्ट गाथाओं की अनुपम मंजूषा है। इस में लगभग एक सहस्र गाथायें विद्यमान हैं। यह संख्या गाहासत्तसई की अपेक्षा लगभग डेढ़ गुनी है, परन्तु विषयों का जो विलक्षण वैविध्य सत्तसई में मिलता है, वह वज्जालग्ग में नहीं है । इसका कारण गाथाओं का वज्जा-बद्ध होना है। वज्जाओं में निर्दिष्ट विषय ही गाथाओं के प्रतिपाद्य हैं। यदि वज्जाओं को देखें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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