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________________ ( xvi ) अनुवाद में यथासंभव उनका अनुवर्तन किया है परन्तु यह वास्तव में एक सांकेतिक काव्यशैली है । श्लेष से जो द्वितीयार्थ निकलता है उसमें केवल क्लिष्ट कल्पना है, चमत्कार नहीं । कई स्थलों पर विसंगतियाँ उभर आई है वियसियमुहाइ वण्णुज्जलाइ मयरंदपायडिल्लाइ । धुत्तरियाइ धम्मिय पुण्णेहि विणा न लब्भंति ॥ इस गाथा में विकसित मुखत्व, वर्णोज्ज्वलत्व और मकरकन्दप्रकटितत्व धर्मों का सम्बन्ध केवल धतूरे के पुष्प से है, साध्य रूप व्यापार धुत्तीरय (धूर्ता स्त्री से होने वाली मैथुन क्रिया) से नहीं । उक्त धर्मों का साक्षात्सम्बन्ध धूर्ता से अवश्य है परन्तु वह शब्द तो समास में गुणीभूत हो चुका है । इसी प्रकार सिसिर मयरंदपज्झरणपउरपसरंत परिमलुल्लाई। कणवीरयाइ गेण्हसु धम्मिय सम्भावरत्ताई। यहाँ पूर्वाध निविष्ट विशेषण और उत्तरार्वा स्थित सद्भाव रक्तत्व-दोनों का अन्वय कनेर-पुष्प (कणवीर) से ही संभव है, कन्यारत से नहीं, क्योंकि धर्मों का सम्बन्ध प्रधान से होता है, गौण से नहीं। यदि चाहें तो इस वज्जा की पांचवीं और छठवीं गाथाओं में दत्ताक्षरा नामक प्रहेलिका मानकर निम्नलिखित ढंग से शृंगारिक अर्थ ले सकते हैं। घेत्तूण करंडं भमइ वावडो परपरोहडे नूणं । धुत्तीरएसु रत्तो एक्कं पि न मल्लए धम्मी ॥ प्रहेलिका की प्रकृति के अनुसार करंड शब्द में क और धुत्तीरय में धु अक्षर अधिक जोड़ दिये गये हैं। इन्हें पृथक् कर देने पर रंडं (रण्डाम) और तीरएसु (स्त्रीरतेषु) शब्द शेष रह जायँगे । अब गाथा का यह अर्थ हो जायगा दूसरे के पिछवाड़े व्यापारशील धार्मिक रांड़ की लेकर भटक रहा है। वह स्त्रीरतों में (स्त्री के साथ संभोग में) इतना अनुरक्त है कि एक को भी नहीं छोड़ सकता है। सुलहाई परोहडसंठियाइ धुत्तीरयाणि मोत्तण । कुरयाण कए रण्णं पेच्छह कह धम्मिओ भमइ ॥ यहाँ धुत्तीरयाणि में धु और कुरयाण में कु अक्षर अधिक है । इन्हें निकाल देने पर क्रमशः तीरयाणि (स्त्रीरतानि) और रयाण (रतानाम्) शब्द शेष रह जायेंगे । अब अर्थ यह होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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