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( XV )
कंची रएहि कणवीर एहि धुत्तीरएहि बहुएहिं । जइ इच्छसि देहरयं धम्मिय ता मह घरे एज्ज ॥
इस गाथा में टीकाकार ने द्वितीयार्थ का प्रतिपादन निम्नलिखित शब्दों के द्वारा किया है—
'पक्षान्तरे काञ्चीरतैः कन्यारतैर्धूतरितैर्बहुभिर्देहरतं कर्तुं यदीच्छसि तदा मम गृहमागच्छेरिति' अर्थात् बहुत से कांचीरतों, कन्यारतों और धूर्तारतों से यदि देहरत करना चाहते हो तो मेरे घर आओ । यह अर्थ असंगत है, क्योंकि पूर्वार्ध में उल्लिखित विभिन्नरत उत्तरार्ध निविष्ट देहरत के साधन नहीं हो सकते । रत स्वयं रत का साधन नहीं हो सकता है । साघन - साध्य या करण-कर्म का ऐक्य संभव नहीं है । यदि पूर्वार्ध को तृतीया को सह के अर्थ में मान लें तो अर्थ का स्वरूप इस प्रकार हो जायगा -
यदि बहुत से कांचीरतों, कन्यारतों और धूर्तारतों के साथ देहरत करना चाहते हो तो मेरे घर आ जाओ । यह अर्थ भी विसंगति से मुक्त नहीं है, क्योंकि सभी रतों में देह-सम्बन्ध अनिवार्य है और विभिन्न रतों के साथ देह-रत करने की इच्छा तभी हो सकती है, जब अन्य रत देह-रत से भिन्न हों । साथ ही विभिन्न रतों का स्वरूपतः देहरत से अभेद होने के कारण पुनः देहरत की इच्छा में कृतकरण दोष की आपत्ति है । यदि यह मानें कि तृतीया विभक्ति रत के अधिकरण को लक्ष्य करती है तो भी उचित नहीं है, क्योंकि कन्या, कांची और धूर्ता साथ ही देहरत संभव है, उनकी रति-क्रीडाओं के साथ नहीं । रतिक्रिया के साथ रतिक्रिया लोक व्यवहार विरुद्ध है । अतः सर्वत्र श्लेष की प्रकल्पना निरर्थक है ।
इस गाथा में रय ( रत) पर समाप्त होने वाले कंचीरय, कणवीरय, धुत्तीर और देहरय से यह मुद्रार्थ सूचित होता है कि पुजारी की रय ( रत) में विशेष अभिरुचि है । अतः अन्तिम शब्द देहरय' में लब्धप्रसर श्लेष के द्वारा इत्वरी का यह तात्पर्य है कि जब तुम्हारी प्रत्येक प्रयोजनीय वस्तु के साथ रय शब्द जुड़ा है तब एक कदम और आगे बढ़ जाओ भी कर लो । टीकाकारों ने धम्मियवज्जा - निविष्ट पुष्पों के का अस्तित्व स्वीकार कर प्रत्येक के दो-दो अर्थ दिये हैं
और मेरे घर आकर देहरत
देहरय = १. मन्दिर, २. देहरत ।
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सभी नामों में श्लेष और मैंने भी हिन्दी
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