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________________ ( xiv ) विभिन्न वज्जाओं में बिल्कुल समान भाव और समान पदावली प्रायः देखने में आती है। उन स्थलों के पक्ष में केवल इतना कहा जा सकता है कि संग्रहकार ने समान भावों, समान रचना पद्धति और समान-पदयोजना से युक्त पद्यों को एक साथ संकलित कर तुलनात्मक दृष्टि का परिचय दिया है। जहाँ किसी अश्लोल या गोप्य अर्थ को प्रतीति कराना लक्ष्य रहता है वहाँ गाथाओं में या श्लेष का अवलम्ब लिया गया है या प्रतीक का। गुह्य-प्रकाशन की यह पद्धति बहत प्राचीन है । इससे अश्लीलत्व या ग्राम्यत्व किंचित् आच्छादित हो जाता है। वैद्य, ज्योतिषिक, लेखक, यांत्रिक, कूपखनक, मुसल, धार्मिक और दौषिक (वस्त्र विक्रेता)-ये आठ वज्जायें उपर्युक्त शैली में उत्कट एवं उच्छंखल श्रृंगार का वर्णन करती हैं । इतना अश्लील काव्य अन्यत्र मिलना कठिन है । लेखक, यान्त्रिक, मुसल और कूपख नक में प्रतीक है और शेष में श्लेष । ज्योतिषिक प्रकरण में प्रतीक ओर श्लेष-दोनों का यथासंभव उपयोग किया गया है। इस प्रकरण में श्लेष का केन्द्र शुक्र शब्द है । ग्यारह गाथाओं के प्रकरण में यह नौ गाथाओं में प्रयुक्त हुआ है । वैद्य प्रकरण में विडंग और पुक्कारय शब्द कई बार आते हैं, परन्तु उनमेंभाव वैविध्य भी है। धार्मिक वज्जा में एक ही शैली में रची विभिन्न गाथायें संकलित हैं। उनमें ऐसे पुष्पों या वनस्पतियों के नामों में अभिप्राय विशेष को ध्यान में रखते हुए स्वार्थिक प्रत्यय (प्राकृत में य) जोड़ कर मुद्रा शैली में बार-बार रय (रत) शब्द की उपस्थिति कराई गई है, जिनके अन्त में प्रायः र अक्षर पड़ता है । प्राकृत में अनाद्य क की परिणति अ अथवा य में होती है । अतः प्रत्येक वृक्ष या पुष्प के अन्त में अनिवार्यतः बार-बार रय (रत रमण या मैथुन) की उपस्थिति, विशेषतः वैसे ही पुष्पों एवं वृक्षों के अन्वेषक पुजारी (धार्मिक) की शृंगार प्रियता की ओर मनाक् संकेत करती है। इस उद्देश्य से कुरबक और धत्तूर को भी बलात् कुरय और धुत्तीरय बना दिया गया है । गाथाओं में जहाँ लिंग या अन्य किसी ऐसे शब्द का निवेश नहीं है वहाँ शृंगार का सूचन मात्र होता है, वाचन नहीं। करण्ड' शब्द से अण्डकोश की सूचना कुछ उसी प्रकार लगती है जैसे काव्य प्रकाश में 'रुचि कुरु' से अश्लील चिकु शब्द की। १. रत्नदेव ने करण्ड शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है गृहीतं कराभ्यामण्डकं मुष्को येन अर्थात् जिसने दोनों हाथों से अण्डकोश को पकड़ लिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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