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________________ (xiii ) तुच्छं तवणि पि घरे घरिणी तह कह वि नेइ वित्थारं । जह ते वि बन्धवा जलणिहि जव्व थाहं ण याणंति ।। इस गाथा में उपमेय तणि में द्वितीया है और उपमान जलणिहि में प्रथमा । यदि घरे को उपमेय मानें तो उसमें सप्तमी है और उपमान में प्रथमा । और यदि वित्थार को उपमेय मान लें तो उस में द्वितीया है और उपमान में प्रथमा। पेम्म अणाइ परमत्थ पयडणं महुमहो व्व बहुभेयं । मोहाणुराअजणयं अव्वो किं वंदिमो निच्चं ॥ इसमें उपमेय पेम्म नपुंसक लिंग है और उपमान महुमह पुंलिंग। सभी विशेषण उपमेय के अनुसार नपुंसकलिंग ही है । उपमान से सम्बन्धित करने के लिये उन्हें पुंलिंग बनाना पड़ता है । विशेषण ही क्यों कभी-कभी विशेष्य के लिंग की भी बहुत अधिक चिन्ता नहीं को गई है । ४१५ वी गाथा में जहाँ प्रिय के घर की तुलना राज-प्रांगण से करते हुए उसे दूतियों से परिपूर्ण बताया गया है, वहां राजपक्ष में अर्थ करते समय दूतो को दूत बना लेने का दायित्व समर्थ पाठकों को सौंप दिया गया है । उपमा अलंकार और ध्वनि, दोनों रूपों में उपलब्ध होती है। वज्जालग्ग में श्लेष को जो प्राधान्य प्राप्त है वह अन्य शब्दालंकारों को नहीं । श्लेष के स्वतन्त्र उदाहरण तो कम ही मिलेंगे, परन्तु अन्य अलंकारों के सहायक के रूप में वह बार-बार आता है । प्रायः विरोध, समासोक्ति, विभावना, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और दीपक के साथ वह बिल्कुल घुल-मिल गया है। ऐसे स्थलों पर श्लेषाभास ही समझना चाहिये, क्योंकि उसका पूर्ण विकास तो तब होता है जब दोनों अर्थ समकक्ष हों। लगता है, संग्रहकार का झुकाव श्लेष की ओर अधिक था । हाल की सत्तसई में शब्द साम्य और श्लेष का अभाव तो नहीं है पर वे नितान्त विरल है । शाब्दिक क्रीड़ा की इस पुष्कलता के कारण बहुत सी गाथाओं में रस का वह तारल्य सुरक्षित नहीं रह सका है जो किसी उत्कृष्ट काव्य को सहृदय संवेद्य बनाता है । जब एक या दो शब्द ही बार-बार भिन्न-भिन्न गाथाओं में प्रयुक्त होकर श्लेष का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं और समान भावों की शृंखलाबद्ध पुनरुक्ति होने लगती है तब पूरी वज्जा पिष्टपेषण सी लगती है । यह बात श्लेष के सम्बन्ध में ही नहीं है, १. देखिये, विज्ज, जोइसिय और धम्मिय वज्जायें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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