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वज्जालग्ग
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४१२*४. देखो, प्रिय हृदय में रहता है, तब भी नयनों से उसे देख पाना कठिन है। विधाता ने मेरे पेट में जालीदार झरोखे क्यों न किये'?॥४॥
४१२*५. वह भी कोई दिन होगा, जब प्रिय के भुजपाश में बद्ध होंगे और रति-क्रीड़ा समाप्त हो जाने पर प्रवास के कष्टों को पूछेगे ॥ ५ ॥
४१२*६. जो दी हई वस्तु को ग्रहण करता है, प्रार्थित वस्तू ला कर देता है, खाता है और खिलाता है, गुप्तभेद बताता है और प्रतिक्षण सुखदुःख पूछता रहता है-उसे अनुरक्त समझो ।। ६ ।।
दुई-वज्जा *४२१*१. हे शिव ! तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, अपराध तो क्लेश को हर लेने वाले, पार्वती के रूप का है, जिसके कारण अब भी वे प्रसन्न नहीं हो रही हैं ॥ १॥
४२१*२. सखि ! दूती के द्वारा जो कार्य नष्ट हो चुके हैं, क्या उन्हें स्पष्ट रूप से किसीसे कहा जाता है ? अर्थात् नहीं। यह लोक प्रसिद्ध हैजिस उपवन में बन्दर रहते हैं, उनमें फल नहीं लगते (रहते) हैं ॥ २ ॥
ओलुग्गाविया-वज्जा ४३८*१. सुभग ! वह दिन भर दर्पण में प्रतिबिम्बित अपने नेत्रों को इसलिए देखती रहती है कि इन्हीं (सौभाग्यशाली) दोनों नेत्रों के द्वारा तुम देखे जा चुके हो ॥१॥
१. देखिये, गा० ७८७ २. देखिये, गा० ७८३ * विस्तृत अर्थ के लिए परिशिष्ट 'ख' देखिए ।
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