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________________ वज्जालग्ग ३८९*७. प्रिय के विरह में बढ़ जाती हो और समागम में घट जाती हो। हाय री रात्रि ! तुम नृशंस हो (निर्दय हो)। भद्रे ! तुम भी तो महिला हो, तब भी दुःख नहीं समझ पाती' ॥ ७ ॥ अणंग-वज्जा ३९७*१. माँ ! जिसका शरीर (शिव द्वारा) भस्म हो चुका है, उस रूपहीन कामदेव के लिए क्या करें? वह तो जले हुए अंग को निर्धूम शंख चूर्ण के समान जला रहा है ॥ १ ॥ *३९७*२. सखि ! मैं समझतो हूँ, जिसके पुष्पों के समूह के नीचे से अग्नि उत्पन्न हो रही थी, उस हार के द्वारा दग्ध होकर कामदेव फिर बुझा नहीं, तभी तो मुझे जला रहा है ॥ २॥ पियाणुरायवज्जा ४१२*१, जो भी रस हैं, जो भी दृष्टियाँ हैं और भरतमुनि द्वारा कल्पित जो भी भाव हैं-वे सभी सहसा प्रिय को देखते ही अभिनीत हो जाते हैं (सबका अभिनय होने लगता है) ॥ १ ॥ ४१२*२, बो मेरे हृदय का शोषण कर रहा है, वह सुजनों का प्रेमी, सुभाषितों का समुद्र और मदनाग्नि को बुझाने वाला कहाँ गया? ॥२॥ ४१२*३. वह मास, वह दिन और वह रात्रि सब लक्षणों से पूर्ण है और वह मुहूर्त अमृत के समान है, जब प्रिय सहसा दिखाई देगा ॥ ३ ॥ घटने का समागम में प्रिय के, अति पाप भरा हठ ठानतो है । बढ़ जाती वियोग में है इतना, कि न बीतना भी झट जानती है। तरसाने में ही अनुरागियों को, यों बड़प्पन वैरिनि ! मानती है । भरी यामिनी! तू भी तो भामिची है, फिर पीर न क्यों पहचारती है। * विस्तृत विवेचप परिशिष्ट 'ख' में देखिये । २. देखिये, गा० ७८२ ३. देविपे, गा० ७८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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