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________________ वज्जालग्ग विरह-वज्जा ३८९*१. जिन्होंने सौभाग्य-निधि प्रियतम को देखा है, वे आँखें ही रोयें। जिन्हें समागम (संयोग) नहीं प्राप्त हो सका है, वे अंग क्यों क्षीण होते जा रहे हैं ? ॥ १ ॥ ३८९*२. मेरे मन का ऊँट तुम्हारे सुरत-रूपी श्रेष्ठ वृक्ष के कोमल पल्लवों का स्वाद पाकर द्राक्षा (अंगूर) का कौर भी छोड़ रहा है ।। २॥ ३८९*३. कुवलयलोचने ! विरह-रूपी अग्नि की लपटों में जलते मेरे अंग को अपने संभोग-रूपी महानदी के जल से बुझा दो ॥ ३ ॥ ३८९*४. प्रिय को रोकने के लिये रतिमन्दिर के द्वार पर फैली हुई, वे सुन्दरी की लता-जैसी भुजायें, जो लीलापूर्वक पीन पयोधरों को हिला दे रही हैं, सुन्दर लगती हैं ॥ ४ ॥ ३८९*५. कभी जाता है फिर मुड़ता है, स्थान पर पहुँच कर लौट पड़ता है। प्रिय का विरह बिना लगाम के घोड़े के समान हृदय में स्थिर नहीं रहता है ॥ ५॥ ३८९*६. जो काम देव के अधीन हो चुके हैं, वे अंग ऐसे ही दग्ध होते हैं। न जलते हैं, न धकधकाते हैं, न सनसनाते हैं और न धुयें का मण्डल छोड़ते हैं ॥६॥ वह पीकर रूप छटा प्रिय की जो अघाते नहीं थे कभी पहले। अब रोते हुए उन लोचनों को यह दारुण पीर भले ही खले । जिन्हें अवसर संगम का न मिला जो अभागे कभी हैं लगे न गले । सखि ! वे चिरवंचित कोमल अंग वियोग में हो रहे क्यों दुबले ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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