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________________ वज्जालग्ग ३००* १. वह बाला धनुष का सन्धान करती है, को विद्ध कर देती है, परन्तु जोव को नहीं ॥ १ ॥ नयण - वज्जा अपूर्व धनुविद्या जानती है । भौंहें टेढ़ी कर कानों तक नयन-बाणों को खींचती है, मन ३०३ ३००*२. जैसे राक्षसों को देख कर लोग शंकित (भीत) हो जाते हैं और (भागने के लिये) मार्ग देखने लगते हैं, वैसे हो कृषक-वधू के सकाम नेत्रों को देख कर लोग (प्रेम को) आशंका करने लगते हैं और (उसके निकट तक पहुँचने का मार्ग (उपाय) देखने लगते हैं ॥ २ ॥ ३००* ३. आज भी उसके बिना इसके कृष्ण - श्वेत नेत्र जन्मान्ध पशुओं के समान दिशाओं में भटकते रहते हैं ॥ ३ ॥ ३००*४. हे दुर्दैव ! (दुर्भाग्य) तरुणों और तरुणियों के श्वेत, कृष्ण, दीर्घ, उज्ज्वल, पक्ष्मल और चंचल पुतलियों वाले नयनों की दृष्टियों का प्रसार भी मत तोड़ देना ॥ ४ ॥ Jain Education International ३००*५. सब लोग लाल रंग से लाल, श्वेत रंग से श्वेत और काले रंग से काला बनाते हैं । मृगाक्षि ! आश्चयं है, तुम्हारी कृष्ण और श्वेत आँखों ने लोगों को रक्त (लाल और अनुरक्त) कर दिया है ॥ ५ ॥ *३००*६. प्रगाढ चुम्बन से जिनका घना कृष्ण काजल प्रोंछित हो चुका है, वे आँखें अश्रुधारा के भीतर विवर्धमान विरोधों ( बाधाओं) के विगलित ( नष्ट) हो जाने के कारण सुन्दर लग रही हैं ॥ ६ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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