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________________ वज्जालग्ग २९९ हंस-वज्जा २६३*१. अरे राजहंस ! तुम जाओगे और सरोवर भी पा जाओगेइसमें आश्चर्य क्या ? परन्तु पृथ्वी भर में भटक कर भी मानस जैसा सरोवर तो नहीं ही पाओगे ॥१॥ २६३*२. अरे हंस ! मानस के कमलों का सुख मत स्मरण करो। दैवाधीन वस्तु दुःख से ही मिलती है ।। २ ।। २६३*३. कमलिनी जैसे हंस के साथ क्रीडा करती है, वैसे ही भ्रमर के साथ भी। महिलाओं के हृदय कृष्ण और शुक्ल में अन्तर नहीं रखते ।। ३॥ २६३*४. दुष्ट जलरंकुओं' (जल-जन्तुओं) ने सरोवर का विपुल जल ऐसा कलुषित कर दिया कि अवसर पर आने वाले राजहंसों के लिये अब स्थान ही नहीं रह गया ।। ४ ।। छइल्ल-वज्जा २८४*१. जिनका उपचार खंडित नहीं होता (या जो उपकार करना बन्द नहीं करते), पहले-जैसा प्रेम न रह जाने पर भी जिनके मुँह का रंग परिवर्तित नहीं होता, वे विदग्ध जन विरक्त होने पर भी कठिनाई से जाने जाते हैं ॥१॥ २८४*२. विदग्ध जन स्नेह-हीन (प्रेमहीन और तेलहीन) हो जाने पर तिलों के समान खल (दुष्ट और खली) बन जाते हैं। वे तभी तक कोमल रहते हैं, जब तक उनका शरीर स्नेह (प्रेम और तेल) से पूर्ण होता है ॥२॥ १. रङ्क शब्द मृगवाचक है । लक्षणया उसे जीव के अर्थ में ग्रहण कर सकते हैं । नैषध (२।८३) में यह मृग के अर्थ में ही प्रयुक्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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