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________________ वज्जालग्ग २९७ २२६*२. हे करभ ! कहीं संयोग से प्राप्त मधु-पटल को चख कर खिन्न मत हो जाओ । मनमाने भोग सर्वदा कहाँ मिलते हैं ? ॥ २॥ . २२६*३. आह भरते हो, रोते हो, खिन्न होते हो, क्षीण होते हो, चिन्ता करते हो, उद्विग्न हो कर भ्रमण करते हो, अरे करभ ! तुम ने मानों अपनी मृत्यु के लिये उस वल्ली (लता) का आस्वादन किया था ॥३॥ इंदिदिर-वज्जा २५२*१. उत्कृष्ट केसर, मकरन्द और उद्दाम सुरभि वाले शतदल (कमल) को छोड़ कर यदि भ्रमर पाटला को चाहता है, तो वह उसके किस गुण के कारण ? ॥ १ ॥ २५२*२. भ्रमर मँडराकर कमल के कुछ ऐसे स्थान का स्पर्श करता है कि नलिनियों (कमल के पौधों) के मूल में भी स्थित मकरन्द को खींच लेता है ॥२॥ २५२*२. मधुकर ! खेद मत करो, प्रार्थना करता हूँ, मालती के वियोग में कहीं छिप जाओ। भाग्य विमुख होने पर मनोवांछित वस्तु नहीं मिलती ॥३॥ २५२*४. सुगन्ध-लोभी भ्रमर! कमल के संपुट में निरुद्ध हो कर क्यों खिन्न होते हो। अन्य संकट में पड़े व्यक्ति भी सुख नहीं पाते हैं ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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