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________________ २९६ २२६* २. कह वि तुलग्गावडियं महुपडलं चक्खिऊण मा खिज्ज । हियइच्छियाइ कत्तो अणुदियहं करह लब्भंति ॥ २ ॥ कथमपि यदृच्छापतितं मधुपटलमास्वाद्य मा खिद्यस्व | हृदयेप्सितानि कुतो अनुदिवसं करभ लभ्यन्ते ॥ वज्जालग्ग २२६*३. नीसससि रुयसि खिज्जसि जूरसि चितेसि भमसि उब्बिबो । सा मरणस्स कए णं करह तए चक्खिया वल्ली ॥३॥ निःश्वसिषि, रोदिषि खिद्यसे, क्षीयसे, चिन्तयसि भ्रमसि उद्विग्नः । सा मरणस्य कृते खलु करभ त्वया आस्वादिता वल्ली । इंदिदिरवज्जा २५२*१. मोत्तूण वियड केसरमयरंदुद्दामसुरहिसयवत्तं । जे महइ महुयरो पाडलाइ तं केण व गुणेण ॥ १ ॥ विकटकेसरमकरन्दोद्दामसुरभिशतपत्रम् | मुक्त्वा यत् काङ्क्षति मधुकरः पाटलानि तत् केन वा गुणेन ॥ २५२*२. तं किं पि पएसं पंकयस्स भमिऊण छप्पओ छिवइ । नलिणीण जेण कड्ढइ आमूलगयं पि मयरंदं ॥२॥ तं किमपि प्रदेश पङ्कजस्य भ्रान्त्वा षट्पदः स्पृशति । नलिनीनां येन कर्षति आमूलगतमपि मकरन्दम् ॥ २५२*३. इंदिंदिर मा खिज्जसु दे निलसु कहिं पि मालईविरहे । हियइच्छियाइ नहु संपति दिव्वे पराहुत्ते ॥३॥ इन्दिन्दिर मा खिद्यस्व प्रार्थये निलय कुत्रापि मालतीविरहे । हृदयेप्सितानि न खलु संपतन्ति दैवे पराग्भूते ॥ २५२*४. बहुगंधलुद्ध महयर कमलउडणिरुद्ध खिज्जसे कीस । अहवा वसणासत्ता अन्ने वि सुहं न पावंति ॥४॥ बहुगन्धलुब्ध मधुकर कमलपुटनिरुद्ध खिद्यसे कस्मात् । अथवा व्यसनासक्ता अन्येऽपि सुखं न प्राप्नुवन्ति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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