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________________ वज्जालग्ग वाहवज्जा *२१४* १. ओह, मेरा पुत्र सो रहा है, उसके बालों की लटें प्रिया कोमल एवं स्वच्छ केश - पाश में मिश्रित हो गई हैं । वणिक् ! अन्यत्र जाओ, हमारे पास मुक्ताफल कहाँ ? ।। १ ।। २९५ २१४*२. पिता के घर से आती हुई व्याधवधू ने मतवाले गजराजों के कपोलों के घर्षण से लगने वाले मैल से मलिन करंज - शाखाओं से जान लिया कि मेरे पति की मृत्यु हो गई है ॥ २ ॥ २१४* ३. पति के मरने पर भी व्याधवधू ने वैसा मुक्तकंठ से क्रन्दन नहीं किया जैसा पल्ली (गांव) के निकट हाथियों को गर्जना सुन कर ।। ३ ।। २१४*४. गाँवों में बिखरे बालों वाले व्याध-वृन्द को प्रत्यूष में निकला हुआ देखकर हाथी - दाँत खरीदने वाले लौट जाते हैं ॥ ४ ॥ *२१४*५. ( हे सास ! ) हाथियों को मारना तो दूर रहे, तुम्हारा पुत्र भारी धनुष के भार को छील कर हल्का कर रहा है । हमारे पीन एवं सुदृढ़ पयोधरों की क्या महत्ता रह गई ॥ ५ ॥ Jain Education International करह- वज्जा २२६* १. मेरी प्रार्थना है, कहीं भी, जिस किसी पल्लव की इच्छा कर लो | ऊर्ध्व - मुख हो कर दीर्घ श्वास लेने वाले करभ ! (ऊँट) उस वेलि का स्मरण करते हुए कहीं मर न जाओ ॥ १ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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