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वज्जालग्ग
२९३ १७८*३. एक ओर प्रिया रो रही है, तो दूसरी ओर समर में तूर्य बज रहे हैं—प्रेम और रणोत्साह से वीर का मन सन्देह में पड़ गया ॥३॥
गयवज्जा १९९*१. गजेन्द्र ! सिद्धों की रमणियों के वक्षःस्थल में स्थित उरोजों पर उछलती हुई जिस की तरंगें मन्थर गति से बहने लगती हैं, उस नर्मदा जल (नर्मदा नदी के पानी) की स्मृति करते-करते ही मर जाओगे ॥ १॥ ___ *१९९*२. यह नर्मदा ही है, जो प्रौढ़गजेन्द्रों की प्रमत्तता की स्थिति में, दाँतों से तटों का खोदना, सम्पूर्ण शरीर को जल में डुबो देना और सँड़ों के संचालन का आयास (कष्ट) सह लेती है ।। २।। द्वितीयार्थ-यह सुन्दरी ही है जो (कपोलादि पर) दाँतों से होने वाला क्षत, सम्पूर्ण लिंग का भग में प्रविष्ट हो जाना, (कचादि पर) हस्त संचालन से उत्पन्न आयास और गजेन्द्रों के समान प्रौढ पुरुषों का वीर्य (या रमणोन्माद) सह ले जाती है।
१९९*३. केसरी (सिंह) के भय से भागने वाले, अरे मूढ गजराज! तुम्हारी जो आकृति सब लोगों के द्वारा प्रेक्षणीय थी, उसे तुम ने आज तुच्छ (लघु) बना दिया है ।। ३ ॥ __*१९९*४. मुँह में सीधी जिह्वा नहीं है, लँड स्वल्पाकृति है, दृष्टि मद से भयानक हो गई है। अरे दाँतों की कोरों पर गर्वशील गजेन्द्र ! तुम आरोहण के योग्य नहीं हो ॥ ४ ॥ द्वितीयाथ-सीधे मुँह बात नहीं करते हो, हाथ छोटा है (और छोटे हाथ से थोड़ा दान ही सम्भव है), दृष्टि गर्व से भयानक बन गई है। अरे करोड़ों रत्नों पर गर्वित (या रत्नों की श्रेणियों पर गर्वित) नरेन्द्र ! तुम सेवा करने योग्य नहीं हो (क्योंकि धनी होने पर तुम्हारी सेवा से कोई कुछ पा नहीं सकता)।
*१९९*५. अरे गजेन्द्र ! जब सिंह को देख कर मद (हाथी के कुंभस्थल से प्रवाहित होने वाला जल) छोड़कर चीत्कार करने लगे, तब तुम ने अपनी श्रेष्ठ आत्मा (या विशाल आकृति) को ही नहीं, उस दुर्धर्षं आक्रामक सिंह को भी लघु बना दिया (अर्थात् ऐसे भीरु एवं निर्बल गज पर आक्रमण करने वाले सिंह में क्या पराक्रम रह गया) ॥ ५ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में देखिये ।
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