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________________ वज्जालग्ग २८१ ६४*२. खल (खली और दुष्ट) का संग छोड़ देने से तेल ने जो फल पाया, उसे देख लो -- कस्तूरी की महक से महकते हुये राजा के शिर पर उसे स्थान मिल गया ॥ २ ॥ ६४*३. बहरे और अन्धे धन्य हैं, वे ही मनुष्यलोक में जीवित हैं। क्योंकि वे न तो निन्दकों के वचन सुनते हैं और न खलों का वैभव देखते हैं ।। ३ ।। ६४*४. कुत्तों के मैथुन के समान दुष्टों का मार्ग ही अपूर्व है । वे प्रारम्भ में चाटुवाक्य बोलते हैं और कार्य पूरा हो जाने पर मुँह फेर लेते हैं ( कुत्ते भी मैथुन के पूर्व चाटुकारिता करते हैं और कार्य पूरा हो जाने पर मुँह दूसरी ओर कर लेते हैं) ॥ ४ ॥ ६४*५. जो महासत्त्व ( महापुरुष ) होते हैं, वे अपने प्रताप का वर्णन होने पर लज्जित हो जाते हैं । क्षुद्र लोग तो झूठी प्रशंसा से ही फूले नहीं समाते ॥ ५ ॥ मित्तवज्जा ७२*१. गंगा का प्रवाह, वटवृक्ष की तुंगता, सुजनों का अंगोकार - ये पहले छोटे ही रहते हैं, पश्चात् वृद्धि प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥ ७२*२. प्रिय के न देखने पर औत्सुक्य, देखने पर ईर्ष्या, अधिक प्रेम होने पर मान और दूर चले जाने पर दुःख होता है । सखि ! प्रिय से सुख कहाँ मिलता है ? ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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