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________________ २६९ ७८३. क्या वह भी कोई दिन होगा, जब प्रियतम बाहुपाश (आलिंगन) में आयेंगे और रति के आनन्द से खिन्न होकर ( थककर ) प्रवास दिनों को भूल से जायेंगे ॥ ४ ॥ ७८४. प्रियतम आयेंगे, निर्दयता - पूर्वक चुम्बन करेंगे और चुम्बन करके पूछेंगे - प्रिये ! तुम कुशल से हो न ? उन दिनों को नमस्कार है, नमस्कार ॥ ५ ॥ वज्जालग्ग ७८५. वही दिन धन्य है, वह रात सम्पूर्ण लक्षणों से पूर्ण है और वह मुहूर्त भी अमृत है, जब सहसा प्रियतम दिखाई देंगे ॥ ६ ॥ ७८६. दूरतर देश में रहने वाले और प्रियतम के संगम की इच्छा रखने वाले मनुष्य के जीवन को आशाबन्धन ही सहारा देता रहता है ॥ ७ ॥ ७८७. देखो, प्रियतम हृदय में रहकर भी नयनों को नहीं दिखाई देते । विधाता ने मेरे हृदय में जालीदार झरोखे नहीं रच दिये ! ॥ ८ ॥ ९५. दोसिय- वज्जा ( दौषिक पद्धति) ७८८. हे दौषिक ! (वस्त्र-विक्रेता) मुझे ऐसा कटिवस्त्र रुचता है, जो दीर्घ, मृदु, घने सूतों वाला एवं चौड़ा हो तथा जिसका कपड़ा बहुमूल्य हो । ( मुझे ऐसा पति' रुचता है, जो लम्बा, कोमल, सुभाषी तथा मोटा हो और जिसकी कटि सुखद हो ) ॥ १ ॥ १. संस्कृत टीकाकार ने वस्त्र को स्त्री का प्रतीक मानकर व्याख्या की है । मैंने उसे पुरुष का प्रतीक मानकर अनुवाद किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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