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वज्जालग्ग
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७७७. अरे दीपक ! मलिन लोग ही अपने घर में यथेच्छ मालिन्य उत्पन्न करते हैं। तुम तो गुण (बाती और अच्छाई) और स्नेह (तेल और प्रेम) से युक्त हो, तुम्हें यह उचित नहीं है ।। ३॥
७७८. दीपक ! तुम अपने गुण (बाती और अच्छाई) और स्नेह (तेल और प्रेम) को नष्ट कर डालते हो और अपने घर को मलिन बना देते हो। इसी लिये सज्जनों ने तुम्हारी छाया का परित्याग कर दिया ॥४॥
(दीपक, खर और गज की छाया त्याज्य है-संस्कृत टीकाकार)
७७९. दीपक ! तुम्हारे गुण (बाती, अच्छाई), प्रभा और स्नेह (तेल, प्रेम) से क्या ? जिसकी छाया को भी विशिष्ट लोग निन्दा करते हुये दूर से ही त्याग देते हैं ॥ ५ ॥
• ९४-पियोल्लाव-वज्जा (प्रियोल्लाप-पद्धति) ७८०. एक ही प्रिय मनुष्य के बिना बहुत से दुःख हो जाते हैं-आलस्य, औत्सुक्य, अनिद्रा और पुलक के साथ-साथ भय ॥ १॥
७८१. अहो! सच्चे प्रेम से परिपूर्ण एक ही प्रिय मनुष्य के अभाव में जनसंकुल पृथ्वी भी वन-जैसी लगती है ॥ २॥
७८२. वह कहाँ गया ? वह सुजन वल्लभ था, वह सैकड़ों सुखों की खानि था, वह मदनाग्नि-विनाशक था, आज वही मेरे हृदय का शोषण कर रहा है ॥ ३॥
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