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वज्जालग्ग
२५९ ७५३. निरन्तर भरे रहने वाले रत्नों से भी रत्नाकर को गर्व नहीं है। किन्तु मौक्तिक का सन्देह होने पर ही (सन्देहमात्र से ही) हाथी की दृष्टि मद (द्रव, गर्व) से विह्वल हो जाती है ॥ ८ ॥
७५४. अनवरत देते रहने पर भी सागर के रत्न क्षीण नहीं होते। लक्ष्मी पुण्य-क्षय से क्षीण होती है, त्याग और भोग से नहीं ॥९॥
७५५. रत्नों के निकल जाने से रत्नाकर लघु नहीं हो जाता, फिर भी उसमें चन्द्र-जैसे रत्न बिरले ही हैं ।। १० ॥
७५६. रत्नाकर ने चन्द्रमा को त्याग दिया, फिर भी वह शिव के मस्तक का तिलक बन गया। रत्नाकर ने चन्द्रमा के स्थान पर किसे रखा-नहीं जानते ।। ११ ॥
७५७. यद्यपि भाग्यवश (काल परिवर्तन से) चन्द्रमा किसी प्रकार समुद्र से बिछुड़ गया, फिर भी उसका प्रताप (प्रकाश) दूर देश में रहने पर भी सुख देता है ॥ १२ ॥
७५८. रत्नाकर ! देवताओं को रत्न सौंप कर और स्वयं को (अपने आप को) भूखे वडवानल के लिए समर्पित कर तुम ने संसार पर अपनी मुहर लगा दी (सब के प्रशंसा-पात्र बन गये) ॥ १३ ॥
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