SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वज्जालग्ग २५७ ७४७. समुद्र ने कौस्तुभ (मणिविशेष) को त्याग दिया, तब भी उसे विष्णु के वक्षःस्थल पर स्थान प्राप्त हो गया, परन्तु उसने पुनः कौस्तुभ के स्थान पर किसे रखा-नहीं जानते ॥ २॥ ७४८. दोष ही मत ग्रहण करो, गुण कम होने पर भी व्यक्ति की प्रशंसा करो । समुद्र में यद्यपि अक्ष (कर्पदक या कौड़ो का एक प्रकार एवं सोंचर नमक का लक्षण से साधारण नमक) की ही प्रचुरता है, फिर भी वह संसार में रत्नाकर कहलाता है ॥ ३ ॥ ७४९. यद्यपि समुद्र-तट पर फैलने वाली तरंगों से प्रेरित होकर रत्न पहाड़ी नदियों में पहुँच जाता है, परन्तु (उन्हीं तरंगों के) पीछे लगा हुआ वह पुनः रत्नाकर (रत्नों का भण्डार, समुद्र) में चला जाता है ।। ४ ॥ ७५०. लक्ष्मी के अभाव में भी समुद्र की अगाधता जैसी की तैसी रह गई, परन्तु समुद्र के बिना वह लक्ष्मी, कहो, किस-किस के घर नहीं गई ? || ५ ॥ ७५१. समुद्र को वडवानल ने सुखाया, सम्पूर्ण सुरों और असुरों ने मथा तथा लक्ष्मी ने भी छोड़ दिया, फिर भी उसका गाम्भीर्य देखो ॥ ६ ॥ ७५२. हे समुद्र ! तुम्हारे भीतर अग्नि और जल, अमृत और विष, विष्णु और दानव-ये सब एक साथ रहते हैं, तुम्हारी महिमा बहुत ही बड़ी है ॥ ७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy